प्रेम ही जीवन

*प्रेम का जीवन और श्रृंगार एवम पोषण प्रेम ही*

      *प्रेम* ऐसा दर्पण है जिससे प्रेम ही प्रतिबिंबित होता है। प्रेम ही प्रेम को भरता है, प्रेम से ही प्रेम का स्वरूपः विकसित होता है, प्रेम से ही प्रेम प्रफुल्लित होता है, प्रेम से ही प्रेम का पोषण होता है, प्रेम से ही प्रेम का श्रृंगार होता है, प्रेम से ही प्रेम आह्लादित होता है। प्रेम का मूर्तिमान स्वरूपः हमारे युगल *श्रीश्यामाश्याम* हैं।प्रेम ही इनका नित्य स्वरूपः है, प्रेम ही इनका नित्य श्रृंगार है, प्रेम ही इनकी क्रीड़ा है, प्रेम ही इनकी सम्पूर्ण लालसा है, प्रेम ही इनके हृदय की भूमि अर्थात *श्रीवृन्दावन* है। इस प्रेम राज्य में सर्वत्र प्रेम ही प्रेम है, श्रीयुगल की सेवा भी यहाँ प्रेम का स्वरूप है, अर्थात उनसे अभिन्न है।श्रीयुगल कृपा श्रीरसिक आश्रय से ही यह प्रेम पल्लवित होकर प्रेम रूपी सेवा ही हो जाता है।

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