युगलरूप गौरांग
*युगलरूप गौरांग*
*गौरांग* अपने भीतर रस का अथाह सिन्धु समाये हुए हैं जिसे वह न हो पीते हुए अघाते हैं न लुटाते हुए अघाते हैं। प्रेम सिन्धु, करुणासिन्धु , इस उज्ज्वल गौरकान्ति में सिमट सिमट बिलस रहे हैं। जिस प्रकार दो सिन्धु एक दूसरे में समा जाने को व्याकुल हों, अतृप्त हों,उनको अपने भीतर समेटी हुई स्थिति है गौरांग।
*गौरांग* नाम की उज्ज्वलता, धवलता, करुणा, रस, प्रेम इस नाम में ही पूर्णतः समाई हुई है। रस की वह सर्वोपरि स्थिति जहाँ युगल का विलास नव नवायमान हो रहा है, वह स्थिति है गौरांग।श्रीयुगल का ऐसा विलास जिसमें उनका क्षण का भी प्राकथ्य नहीं है, जहाँ कृष्ण , कृष्ण होकर भी कृष्ण नहीं अपितु राधा भाव राधा काँति धार , राधा ही हो गए हैं। श्रीराधा प्रेम का अथाह सिन्धु जिसका पान करने को , जिसका आस्वादन करने को , जिसमें डूबने को कृष्ण ललचा गए तो *गौरांग* हो गए हैं।
श्रीराधा प्रेम सिन्धु की ऐसी ऐसी लहरें तरंगायित हो रही हैं जिसका पान करने को कोटिन कोटि ब्रह्मांड नायक अपना सकल ऐश्वर्य त्याग कर उन्हीं लहरों में बह बह कर राधा ही हुए जा रहे हैं। स्वयम अपनी रूप माधुरी को पान करने का लोभ भी उन्हें गौरता दे रहा है जिससे वह श्यामलता का आस्वादन कर सकें। कृष्ण *गौरांग* होकर इस प्रेम सिन्धु में लहराते अघाते नहीं हैं , उनके एक एक नाम मे इतना सामर्थ्य है कि जीव कृष्ण प्रेम सिन्धु में डूब जाए। करुणासिन्धु का करुणामयी रूप जहाँ स्वयम इस रस का पान कर रहा है वहाँ पात्रता का विचार न करते हुए यह धन वितरित किया जा रहा है। *गौरांग* नाम का उच्चारण शिव तक को उन्मत्त किये रखता है जिसे पान करते करते वह इस प्रेम सिन्धु का पान करते रहते हैं , अपितु अपने शरणागत तक को भी यही प्रेम सिन्धु की रस धारा में बहा देते हैं।
कलियुग के जीवों के असंख्य पाप ताप के निवारण तथा प्रेम प्राप्ति का मात्र उपाय *श्रीगौरांग* प्रभु के चरणों का ही आश्रय है, जिससे कृष्ण प्रेम सहजता से ही खिल जाता है। श्रीवृन्दावन का रस विलास हृदय में प्रकट होकर क्षण क्षण नव नवायमान होता रहता है।
गौर नाम मे रस अति भारी पिये होय मतवारा
गौर गौर गौर भज री बाँवरी गौर ही परम सहारा
गौर कृपा सों नाम हिय आवै मुख सो जाय उच्चारा
गौर शरण पड़ अबहुँ बाँवरी मानुस जन्म बिगारा
गौर नाम ही रतिमति कीजौ नाम गौरचन्द्र उजियारा
प्रेम सिंधु हिय माँहिं उमगावै जो होय गौर को प्यारा
जय जय श्रीगौरहरि
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