मधुर श्रृंगार रस

*मधुर श्रृंगार रस प्राण श्रीवृन्दावन*

श्रीवृन्दावन श्रीयुगल की नित्य विहार स्थली है। यहाँ की रेणु का एक एक कण श्रीयुगल की मङ्गलमयी प्रीति से ओत प्रोत है। श्रीवृन्दावन की यह धरा धन्य है जो श्रीश्यामाश्याम के हृदय में नवल अनुराग, नवल श्रृंगार, नवल रस का सींचन करती है। श्रीयुगल का मधुर मधुर श्रृंगार जब इस रज अणु पर चंदन, केसर या जावक होकर बिखरता है तो यह रज अणु पुनः पुनः नव श्रृंगार रचता है। इस धरा का एक एक रज अणु धन्यातिधन्य है, क्योंकि उसे युगल का स्पर्श प्राप्त है, युगल केलि का आस्वादन प्राप्त है। इस रज को सभी देव सभी शक्तियां भी नमन करती हैं, सभी इस धरा पर नतमस्तक होती हैं। यहां पर शरणागत होकर ही वह युगल प्रेम का रसास्वादन करती हैं।

श्रीवृन्दावन की यह रेणु जिसने श्रीप्रिया जु के चरण कमलों को अपने हृदय पर धारण किया है इसका एक एक कण अतिशय कोमल है।यह धरा शक्ति श्रीयुगल को अपना आह्लाद , अपना सौरभ, अपना स्पंदन प्रदान करती है।इस रेणुका को श्रीप्रिया जु का चरण अनुराग प्राप्त है जो उनके चरणों का स्पर्श करती है।यहां का एक एक रज अणु मकरन्द के समान अतिशय मधुर अति कोमल , मधुर, शीतल और माधुर्य का पुंज है।यहाँ का एक एक रज अणु महाभाव प्रदान करने वाला, अनुराग प्रदान करने वाला है।यह रज इतनी कोमल, इतनी उज्ज्वल है कि यहां ऐश्वर्य इसकी कोमलता का स्पर्श नहीं कर सकता। इस प्रेम धरा पर ऐश्वर्य का स्पर्श ही नहीं है , जहाँ कोटिन कोटि ब्रह्मांडो के स्वामी भी अपना ऐश्वर्य त्याग कर श्रीप्रिया की चरण रेणु में लुंठित हुए जाते हैं। इस रज को अपने शीश पर धारण कर स्वयम को धन्य मानते हैं क्योंकि इसे प्रिया जु का स्पर्श प्राप्त है ।

              जीव की उपासना सकाम उपासना होती है। वह उस कोमलता को , उस निर्मलता को धारण ही नहीं कर पाता। जीव प्रेम सिन्धु की बूंद होकर भी उनसे अपना सम्बन्ध नहीं बना पाता, क्योंकि जीव की ऐश्वर्य गन्ध बहुत प्रबल है। वह श्रीवृन्दावन जाकर भी इस प्रेम भूमि के कण कण को प्रणाम न कर, यहां की तरु वल्लरियों को प्रणाम न कर अपने ऐश्वर्य की सत्ता को प्रबल करता है। ऐसे में उसे दिव्य कुञ्ज निकुञ्ज , श्रीप्रेम भूमि का दर्शन असम्भव है।

जीव भूल जाता है कि उसके प्रभु ने उसे जो भी ऐश्वर्य दिया है, वह प्रसाद स्वरूपः है। यह स्वयम के भोग के हेतु न होकर वितरण हेतु है, सेवा हेतु है। ऐसे में जीव अपने ऐश्वर्य मद को त्याग नहीं कर पाता , जिससे वह श्रीप्रभु का कोमल स्वरूपः स्पर्श नहीं कर सकता।

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