19
हरिहौं कितहुँ ठौर न पाऊँ
बाहर भीतर फिरूँ बौराई कौऊ विध प्रीत तिहारी पाऊँ
नेह लगाई जगत सौं गाढ़ा बाँवरी साँचो नाथ बिसराई
षडरस लगै बाँवरी नीकै कबहुँ न स्वाद भजन कौ पाई
हा हा खात फिरत हूँ नाथा आपहुँ कीजौ मेरी सम्भार
पतितपावन होय नाम तिहारो पतितन कौ तुम्हरौ आधार
Comments
Post a Comment