गहरी झील
एक गहरी बहुत गहरी सी झील में
डूब जाऊँ आज मेरा मन करता है
है क्या इस झील में तुम देखोगे
मेरे जैसे बदनसीबों के अश्क़ भरे
हम मिलकर एक दूजे को गम बताते हैँ
एक दूजे को देख हो रहे जख्म हरे
और इस झील को देख रही आखिरी बार
रोज़ रोज़ क्यों यहाँ लौट आती हूँ
गिरते हैं चन्द अश्क़ वो भी झूठे से
क्यों नहीं इस दर्द से निकल पाती हूँ
आओ मेहबूब तुम हाथ थाम लो मेरा
कब से तेरे इंतज़ार में साँस चलती है
जाने क्यों जिन्दा हूँ बगैर तेरे
जाने क्यों मेरी ये साँस चलती है
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