कई दिनसे
कई दिन से
कुछ बेचैनी सी
जैसे भीतर ही कुछ है
जो व्यक्त ना हो रहा
शायद शब्द नहीं मिल रहे
पर कुछ है
क्या है
ये भी नहीं जानती
कुछ है
केवल इतना एहसास
जो मुझे बेचैन रखता है
जिसे कहे बिन रहा नहीं जायेगा
कह पाती नहीं
या शब्द ही नहीं मिलते
सोचती हूँ
लिखकर देखूं
पर लिखूं क्या
क्या वो बन्ध जायेगा
कुछ शब्दों में
नहीं लिख पाती
जाने क्यों
कुछ सुनती हूँ
भीतर ही
जो सुना नहीं पाती
जो निकल नहीं रहा
पर निकलने को भी बेताब
कुछ असन्तुष्टि सी
कुछ प्यास सी
कुछ चाहिए
ये भी नहीं पता
जाने क्या है
कोई कुछ कहना चाहता है मुझसे
जाने क्यों लफ्ज़ ही नहीं मिलते
हाँ सुनी है कुछ अनकही भी मैंने
जाने क्यों भीतर अरमान मचलते
क्या सुनाते हो कोई गीत ग़ज़ल तुम मुझको
फिर ये क्या है जो हर पल सुनती रहती हूँ
क्या दिल की धड़कन है तुम्हारी ये
जिसके मैं संग चलती रहती हूँ
जाने कैसी खुमारी सी है मुझे
क्यों तेरे ख्वाब बुनती रहती हूँ
है दिल की धड़कन पर नाम तेरा ही
इश्क़ की कलम से लिखती रहती हूँ
बह जाऊँ तो पता नहीं लगता
होश है क्या ज़रा नहीं लगता
लगते हो तुम इस क़दर अपने
तू मुझे कोई खुदा नहीं लगता
क्या क्या लिखूं तारीफ में तेरी
लिखने को लफ्ज़ कम हो गए मेरे
बीत जाए हर पल कुछ इस तरह
बस रहूँ मैं पहलू में छिपी तेरे
Comments
Post a Comment