भक्ति को स्वाद
*भक्ति कौ स्वाद लहै हरि आप*
भक्ति भक्त भगवंत गुरु
चतुर नाम वपु एक
जिनके पद वन्दन किये
नाश्त विघ्न अनेक
भक्ति श्रीहरि की आह्लादिनी वृत्ति है। उनके हृदय का उन्माद, उनके हृदय का आह्लाद है, जिसका स्वाद चखने को श्रीहरि स्वयं लालायित रहते हैं।भक्ति प्रदाता भी श्रीप्रभु स्वयं हैं , वहीं उस भक्ति के आस्वादक भी वही हैं।क्योंकि भक्ति श्रीप्रभु की वृत्ति होने से चिन्मय स्वरूपिणी है। जड़ता से भक्ति का स्वाद नहीं पाया जा सकता, न ही जड़ीय जीव इस भक्ति को स्पर्श कर सकता है। जीव भाव तक भक्ति के बाहरी स्वरूप का ही स्पर्श है , परन्तु श्रीप्रभु के भीतर का आह्लाद , उनके हृदय का उन्माद वह स्वयम प्रकट करते हैं।इसका प्राकट्य किसी साधना या किसी कर्म का फल नहीं है , क्योंकि जीव की कोई भी साधना या कर्म भक्ति प्रदान करने का सामर्थ्य नहीं रखते,परन्तु इसके साथ यदि जीव के हृदय में प्रभु के सुख की लालसा उतपन्न हो जावे, एक सच्ची पुकार उठ जावे, एक सच्ची लालसा उदित हो जावे बस, तब श्रीप्रभु इसी के वशीभूत होकर जीव को स्वयं उस चिन्मय रस का बीज स्वरूपः प्रदान करते हैं।
भजन, साधन , लालसा इस भक्ति बीज को पोषित करते हैं, पल्लवित करते हैं , क्योंकि इसके फल (प्रेम ) के आस्वादक स्वयम श्रीप्रभु होते हैं।जीव भाव से उस दिव्य रस का अनुभव सम्भव ही नहीं है, क्योंकि श्रीप्रभु को आह्लाद ,उन्हीं की शक्ति ही प्रदान कर सकती है।शक्ति शक्तिमान से अभिन्न है तथा शक्तिमान शक्ति से। बस इन दोनों का परम आह्लाद ही प्रेम भक्ति का परमोच्च स्वरूपः है।
श्रीगुरु कृपा , श्रीभक्त कृपा श्रीप्रभु कृपा से अभिन्न है।एक ही वपु में शक्ति और शक्तिमान की रस क्रीड़ा नित्य नित्य वर्धित, नित्य नव आह्लादित होती रहती है।ऐसे सद्गुरु तथा श्रीरासिकों की चरण धूलि भी भक्ति प्रदान करने का सामर्थ्य रखती है जिसका वितरण श्रीहरि भी संकोच पूर्वक करते हैं। स्वयं श्रीहरि भी प्रेम के वशीभूत हो अपने भक्तों के अंग सँग डोलते रहते हैं।यह प्रेम उन्हें बाध्यता दे देता है, जिससे वह स्वयम को इस प्रेम आस्वादन से रोक नहीं पाते।अनन्त कोटि प्रेम सिन्धु, अनन्त कोटि रस सिन्धु श्रीप्रभु फिर भी उस प्रेम के आस्वादन को सदा तृषित रहते हैं।ऐसे परम करुणामयी प्रभु का क्षण मात्र का स्मरण ही जीव की समस्त पाप राशि को भस्म कर देता है , तथा प्रेम पल्लवित करता रहता है।ऐसे रस सिन्धु, प्रेम सिन्धु, करुणासिन्धु श्रीप्रभु की सदैव जय हो।
श्रीगुरु गौरांगो जयते !!
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