हम पातकी जन भारी

हरिहौं हम पातकी जन भारी
तुम पतितन कौ नाथ हो नाथा दीजौ नाँहिं बिसारी
एक दया की दृष्टि सौं नाथा सगरै भव बन्धन छूटे
लूट मचावै हरिनाम की ऐसी क्षण क्षण मौजा लूटे
हा हा नाथा होऊँ कँगाला कबहुँ हरिनाम धन पाऊँ
कबहुँ जगति कौ षड रस भूलूँ कबहुँ चरणन रति पाऊँ

Comments

Popular posts from this blog

भोरी सखी भाव रस

घुंघरू 2

यूँ तो सुकून