कलम तो मेरे महबूब

कलम तो मेरे महबूब की निशानी है
इससे लिखनी उसके इश्क़ की कहानी है
काश कलम की जगह कभी वो मिलते
जिनके बिना सुनी ये ज़िन्दगानी है

दिल के दर्द क्यों कलम ये लिखती है
कभी उसकी लिखी इबादत नहीं
खुदगर्ज़ सी हो गयी मेरे साथ रहते
देखती कभी उनकी मोहबत नहीं

जब उनके पास थी तो उनके ही जैसी थी
मुझसे मिलकर खुदगर्ज़ी सीख़ ली इसने
ग़ुस्ताख़ हूँ गुस्ताखियाँ सिखा दी इसे
अब अपनी ही मनमर्ज़ी सीख़ ली इसने

छोड़ सब उनकी तू इबादत लिख
दर्द मेरे कहना तू छोड़ दे सारे
चल अब मेहबूब की मोहबत लिख
उनकी थी उनके एहसास लिख प्यारे

देखो अब क्या कमाल करेगी ये
खुद में स्याही कब इश्क़ की भरेगी ये
कब लिखेगी उनकी मोहबतों को
भूल जाती है उनकी इनयतों को

मुझसे मिलकर मुझसी हो गयी है ये
जाने कब उनकी कोई बात लिखे
ख़ुशी से महकते दिन लिखे अब कोई
दर्द की स्याह काली सी रात लिखे

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