हृदय का सत्य

श्यामसुन्दर
आज मेरे हृदय का
एक सत्य कहती हूँ
मुझे अभी तक प्रेम नहीं हुआ
कितना कहा ना तुमको
वो मात्र एक झूठ था
एक धोखा
एक पाखण्ड था
नहीं उठी कभी मेरे हृदय में
कोई तड़प तुम्हें पाने की
कभी इस हृदय को
विरहाग्नि नहीं तपा सकी
कभी पुकार ही नहीं उठी सच्ची
और तुम आए भी तो
कहाँ बैठोगे
देखो कोई रिक्त स्थान ही नहीं
भरा पड़ा मैल जन्मों का
विषय वासनाएं
कामनाएं
कुछ छूटा भी तो नहीं मुझसे
बल्कि और बढ़ गया
मेरे मन का पाखण्ड
नहीं नहीं
तुम मत आना
तुम इतने कोमल
और ये पाषाण हृदय
तुम्हें सदैव कष्ट देगा
मेरी पुकार को
कभी सच मत जान लेना
हूँ मैं पाखण्डी
अभी नहीं
जन्मों से हूँ
अनगिनत जन्मों से यही किया
और ये सब मुझमें
इतना जड़वत है
कितने और जन्मों में भी
कोई पुकार उठने वाली नहीं
देखो आज ये मलिन हृदय
तुम्हारे समक्ष
कैसे खुल गया है
तुम मत आना
और कभी आ भी गए तो
सब तुमपर विस्मित होंगें
बड़े बड़े जपी तपी योगी सन्यासी
देखो पुकार रहे तुम्हें दिन रात
कोई तुम्हारे वियोग में
कुछ छोड़ बैठे
घर बाहर सब त्याग किये
सुख सुविधा सब त्यागे
हे नाथ
तुम उन ही रीझ जाओ
इस मलिन हृदय से
तुम्हें कभी प्रेम भी हुआ हो
मेरी अयोग्यता को देखते हुए
भूल जाओ मुझे
भूल जाओ मुझे

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