कैसे खेल रचे मनमोहन

कैसे खेल रचे मनमोहन मिलने और मिलाने के
तेरी लीला तुम ही जानो खेल छिपने और छिपाने के

अपना क्या है इक दिल था जो अब रहा नहीं अपना
जागती सोती आँखों से देखूँ बस तेरा ही सपना
मोहन तेरे अंदाज़ अलग हैं दिल सबका चुराने के
कैसे खेल रचे मनमोहन मिलने और मिलाने के
तेरी लीला तुम ही जानो खेल छिपने और छिपाने के

मिलते हो तो लगता है मेरे तुम सदा से ही
दिल दे बैठी हूँ मोहन इक तेरी अदा पे ही
ये भी तेरे ही अंदाज़ हैं रोज़ ही आने जाने के
कैसे खेल रचे मनमोहन मिलने और मिलाने के
तेरी लीला तुम ही जानो खेल छिपने और छिपाने के

तेरा प्रेम कैसा है छलिया तुम जानो या मैं जानूँ
तुमसे ही बस प्रीत लगाई तुमको ही अपना मानूँ
क्या कहना है मोहन साँवरे तेरे प्रीत निभाने के
कैसे खेल रचे मनमोहन मिलने और मिलाने के
तेरी लीला तुम ही जानो खेल छिपने और छिपाने के

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