लफ़्ज़ों से इश्क़

लफ़्ज़ों से ही इश्क़ हुआ
काश तुमसे कभी हो जाता
लफ़्ज़ों में ही उलझी रही
काश तेरा साथ हो जाता

क्या ये पर्दा ही लफ़्ज़ों का
जो मुझे तुमसे अलग करता है
हटाना होगा इस पर्दे को भी
जो पर्दा ही पर्दा करता है

पर इस पर्दे को हटाना
मेरे बस की तो बात नहीं
तुम ही रहना चाहो पर्दे में
मेरी तो कोई औकात नहीं

हटा दो इन लफ़्ज़ों को तुम
जाने क्यों ये कलम रूकती नहीं
पर्दा भी करती है ये तुमसे
और इश्क़ में कभी झुकती नहीं

देखो ये तुम्हारी ही सौगात थी
तुम ही इसे खामोश करो अब
उसको भी इश्क़ नहीं हुआ तुमसे
बगावत करने लगी तुम ही बेहोश करो अब

मेरे रोके से भी कहाँ रूकती है
जाने क्यों ये बहना चाहती है
दिल से जुड़े हुए अरमान मेरे
जाने क्यों कहना चाहती है

चाहती हूँ इसे रोक लूँ मैं
यूँ मेरी नुमाइश नहीं करे कोई
अब मुझमें दम रहा कहाँ बाक़ी
इश्क़ में आजमाइश करे कोई

मुझको तो एहसास तक नहीं ऐसा
चलो जो भी है मर्ज़ी है किसी की
हूँ तो खुदगर्ज़ मैं सबसे पहले ही
कैसे कहूँ सब खुदगर्ज़ी किसी की

काश कभी दिल को टटोला होता
कभी आईने में मेरी सूरत होती
कभी नहीं चाहा हो इश्क़ मुझे
काश मुझे कभी तेरी जरूरत होती

काश कभी मेरे दिल में दर्द उठता
ऐसा दर्द जो रूह को तड़पा देता
काश मुझे कभी तेरी याद आती
दर्द होता तो याद दिला देता

चलो तुम नहीं आये तो कोई बात नहीं
मुझको दर्दों से तो महरूम नहीं करना
दर्द ही बन जाए मेरे जीने की वजह
यूँ बिना दर्द के भी क्या मरना

क्या करूँ ऐसे दिल का मैं अब
जो तेरा नाम भी नहीं लेता है
देखो खुदगर्ज़ भी ये इतना है
अपने पर इलज़ाम नहीं लेता है

कैसे कहूँ तुम ये दिल रखलो
इश्क़ में तो दिल भी बदलते हैँ
यूँ ही छोड़ दो मेरे हालातों पर
यूँ ही इस सफर में साथ चलते हैँ

तुम नहीं देखना मैं ही देखु  तुमको
तुम अपनी ही मर्ज़ी में रहना
जो दिल में हो तेरे वही होने दो
मुझे खामोश करो और कुछ नहीं कहना

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