काश कोई पुकार
काश कभी इस रूह से उठती पुकार कोई
काश कभी दिल की गहराई से उन्हें चाहा होता
उम्र भर फरेब ही किया अपने से और गैरों से
काश कभी उनसे किया कोई वादा निभाया होता
है वजूद ही झूठा मेरा किससे शिकायत करूँ
काश कभी आग में खुद को जलाया होता
गर कभी होता मेरी फितरत में इश्क़ करना
अब तलक यूँ न खुद को मुझसे छिपाया होता
आज मैंने अपने बेवफा होने का इकरार किया
महफ़िलों में इश्क़ तो कई बार दिखाया मैंने
हाँ कबूल है मुद्दतों की बेवफाई मेरी मुझे
काश उन्होंने न कभी गले लगाया होता
लिखने को तो लिख डाले कितने ही सफे
दिल की कलम और इश्क़ की स्याही न मिली
काश एक कतरा मोहबत का होता मुझमे
काश इस दिल को कभी ख्याल उनका आया होता
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