प्रेमी मोहन
मोहन
प्रेमी तो केवल आप ही हो सकते हो
मुझमें तो योग्यता ही नहीं
प्रेम करने की
प्रेमी को अपने प्रेमास्पद की
हर वस्तु प्रिय लगती है
हर बात प्रिय लगती है
हर अदा प्रिय लगती है
मुझे तो सदा शिकायत ही रही
जानती हूँ तुम वही करते हो
जो मेरे लिए श्रेष्ठ हो
परन्तु कभी स्वीकार नहीं किया
तुम्हारी हर वस्तु को
तोडना मरोड़ना
मेरा स्वाभाव रहा
अभी से नहीं
जन्म जन्मांतरों से
सदा अपनी श्रेष्ठता सिद्ध की
मुझे कैसे प्रेम हो सकता है
तुम्हारी किसी भी बात को
सहज कहाँ लिया मैंने
हर समय अपने ही हृदय की
तुम्हारा हर निर्णय कठोर ही लगा मुझे
कभी स्वीकृति ही नहीं हुई
और बदले में तुम्हें दी
उलाहनों की बौछारें
ओह
और तुम्हारा प्रेम ऐसे
तुम फिर भी हँसते रहे
कितनी मूर्खताओं पर मेरी
तुम्हारी और से कभी कमी न हुई
अभी भी मेरी बात से
धोखा मत खा लेना
मेरी तो पुरानी आदत है
सदा अपना ही लाभ देखना
जब मन होता है
तब पश्चाताप
जब ना हुआ
फिर वही ताहने उलाहने
देखो ये सदैव ऐसे ही
श्रृंखला बनी रही
पर तुम्हारा प्रेम
कभी कम नहीं हुआ
मोहन
तुम मेरी बातों में
कहीं उलझ मत जाना
नहीं कहूँगी
मुझे प्रेम हो कभी तुमसे
क्योंकि मुझे एहसास है
अपने हृदय की
कलुषता का
मलिनता का
नहीं निभा पाऊँगी
मोहन
कभी नहीं निभा पाऊँगी
मैं जानती हूँ अपनी
तुम कैसे निभा रहे हो
ये तुम ही जानो
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