बिरहन की पाती

जय जय श्यामाश्याम

        बिरहन की पाती
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     श्री श्यामसुंदर , नन्दनन्दन , श्री मनहर , नवल किशोर कृष्ण चन्द्र मथुरा चले गए हैं। उनके प्रेम में सम्पूर्ण ब्रज में जैसी नीरसता छाई हुई है उसका वर्णन करना अत्यंत ही कठिन है। सभी ब्रजांगनाओं के हृदय की क्या स्थिति है , उनका हृदय  विरह की अग्नि से किस प्रकार संतप्त है यह तो वह ही जान सकता है जिसे इस पीड़ा का अनुभव हो। प्रियतम विरह की पीर का वर्णन कोई वाणी का विषय ही नहीं। किस प्रकार ये ब्रज रमणियाँ इस पीड़ा से व्याकुल हो उठती हैं।

    कभी तो इनका विरह नाद राग रागनियों में बहकर पवन में विरह रस तरंगायित करता है , कभी अश्रु जमुना जल में मिश्रित होने लगते हैं तो गोपिकाएँ भाव करती हैं कि उनके प्रियतम मथुरा में इसी यमुना जल में उनके अश्रु देख रहे हैं। कोई बाँवरी गोपी तो अपने आँचल को ही फाड़ पाती लिखने बैठ जाती है। प्रियतम तक इनका सन्देस कभी चन्द्र देव लेकर जाते हैं तो कभी सूर्य की प्रचंड तापग्नि इनके विरह ताप सी लगने लगती है। कभी कभी पवन ही इनके विरह सन्देस श्यामसुंदर के कर्णपुट में घोलती है तो कभी श्यामल घन वर्षा रूप में अश्रु बहाने लगते हैं। कभी कभी तो काग , तोता , मैना, तितली या भ्र्मर ही इनके सन्देस वाहक होकर इनकी पाती इनके प्रियतम तक लेकर जाते हैं।

   श्यामसुंदर भी तो इन्हें क्षण भर नहीं भूलते। इन विरहणी गोप रमणियों की पाती की हृदय से प्रतीक्षा करते रहते हैं। विरहित हृदय के भाव हों और श्यामसुंदर उन्हें स्वीकार न करें ऐसे भी तो नहीं हैं न इन सबके प्यारे। अब तो पाती ही इन विरह ताप से तप्त ब्रज रमणियों के जीवन का आधार बनी हुई हैं। जाने इन विरहित प्रेयसियों के हृदय के भाव इन पातियों में किस प्रकार रुक सकेंगें।

  जय जय श्यामाश्याम

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