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जय जय श्यामाश्याम
बिरहन की पाती 2
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विरह की अग्नि जितनी तीव्र होती जाती है वैसे ही ब्रज रमणियों की व्याकुलता बढ़ती जाती है। जब से श्यामसुंदर इनसे बिछड़े हैं इनकी दशा कैसी हो गई है। प्रत्येक क्षण इनका हृदय श्यामसुंदर में ही रमण करता है। देह , खान , पान सबकी सुधि बिसरा चुकी हैं। ऐसी ही एक विरहणी रात्रि के समय पूर्ण चन्द्र के सन्मुख खड़ी है और अपनी पाती चन्द्र देव को लिखवा रही है।
गगन में ठाढ़े चन्द्र मेरो चन्द्र देखिहौ
कैसो दसा तन मन की श्याम सों कहियौ
कैसो होय मेरो प्राणधन कबहुँ पधारिहै
कीन्हों न विलम्ब श्याम दीजौ न बिसारियै
क्षण क्षण मोहना तोहे हिय माँहिं विचारियै
तन मन तोपे श्याम प्राणधन वार डारियै
विरहणी चन्द्र देव से पूछती है, क्या तुम श्यामसुंदर को देख रहे हो। तुम कितने भाग्यवान हो जहाँ भी श्याम प्यारे हों तुम उनको वहीं निहार सकते हो। मुझे बताओ तो सही मेरे प्राणधन कैसे हैं। उनसे बिछड़े कितना समय व्यतीत हो गया है , उनसे पूछो न वह कब आएंगे। क्या इन नयनोँ से उनको कभी न निहार पाऊँगी अब। हे गगन चन्द्र तुम मेरे कृष्णचन्द्र को मेरी यह पाती सुनाओ न। उनसे पूछो तो सही उनके बिना मेरे जीवन का क्या प्रयोजन है। क्यों उनके बिना इस देह में प्राण हैं ? देखो न प्रकृति में भी ऋतुकाल परिवर्तित हो चुका है। प्रत्येक और बसन्ती आभा बिखरी हुई है केवल इसी आशा पर कि मेरे प्राणधन लौटते होंगें। प्रत्येक पुष्प श्यामसुंदर की प्रतीक्षा में है , हर पुष्प अपने प्राण नाथ को समर्पित होने को व्याकुल हो गया है जैसे। मुझे मेरे प्राणधन के बिना कुछ भी अच्छा नहीं लगता। ये कोयल का कूकना , पपीहे का पिहु पिहु मुझे अत्यंत व्याकुल कर रहा है। श्यामसुंदर से पूछकर बताओ न वह कब आएंगे , कब आएंगे....
. काहे रे पपीहरा तू पीहू पीहू गावै
नित बिरहन को जिया जरावे
मत कूक री तू कोयलिया कारी
रुत यहां होय अबहुँ बसन्त वारी
पिया बिन मोर काहे नाच दिखावै
बिरहन पर कोऊ तरस न आवै
मेघा काहे तू रिम झिम बरसै
बिरहन अखियन नित नित तरसै
कोऊ संदेस जाय पिय को दीजौ
अबहुँ अपनी बाँवरी की सुधि लीजौ
यहां तो वसन्त की ऋतु है पर मेरा हृदय तो विरह की अग्नि से तप्त है। मेरे नयनोँ में तो जैसे वर्षा की ऋतु ही ठहर चुकी है। क्या यह जीवन प्राणधन के बिना ही व्यतीत हो जायेगा। हे चन्द्र देव मेरे प्रियतम तक मेरे हृदय पाती पहुँचा दो।
इक ऋतु जावै दूजी ऋतु आई सजनी मोरी अखियन सों सावन ना जाय
बिरह की पीर उर अंतर भारी कोऊ तो पिया सों सन्देस दियो जाय
खान पान निद्रा सब छुट्यो हाय बाँवरी मग जोवत रहे नैन बिछाय
हिय की पीर मोरी जाने सो ही जो कोऊ निष्ठुर सों प्रीत लगाय
काहे प्रीत लगाई तोसे पिया जी अबहुँ हिय की पीर जरी ना जाय
क्षण क्षण पिय पिय रटे बाँवरी काहे बिधना प्राण मोरे देह धराय
नयनोँ से अश्रु धारा प्रवाहित हो रही है परन्तु दृष्टि चन्द्र देव की और लगा रखी है। एक तुम ही तो हो जो मेरे प्राणधन तक मेरे हृदय की बात पहुँचा सकते हो। मूक वाणी और निरंतर प्रवाहित होते अश्रुओं ने अपने प्राणधन को पाती भिजवा दी है और प्राण तो उनके लौटने की आशा में लगे हुए हैं। रैन दिवस इन नयनोँ में एक ही आशा है श्यामसुंदर कब आओगे। प्राणधन कब आओगे........
क्रमशः
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