मन
मन
जीवन भर इस मन के पीछे ही दौड़ रही है।कभी कामनाओं की। न खत्म होने वाली।एक पूरी तो दूसरी शुरू।दूसरी पूरी तो आगे।और आगे ।कहां रुका मन। नहीं रुका । नहीं रुक्ता । सब बोल चुके ईश्वर है। प्रभु है । मिलें हैं तुम्हें । पर ये मन नहीं माना। कुछ समय माना फिर हट गया ।अपनी करनी चलती रही ।अपनी दौड़ । भीतर बाहर।
फिर इसने कुछ ऐसा देखा सुना । की प्रभु बहुत दूर हैँ। ईश्वर यूँ नहीं मिलते । बहुत दूरी है । देखो फिर उलटी चाल इसकी।
अभी मान बैठा है की प्रभु मेरे हैं । मुझसे दूर नहीं । मेरे पास ही हैं । अच्छा यही मान लो । इसी में राज़ी रहो तुम । हमेशा से तुम्हें ही तो राज़ी किया है ।
चलो तुम मान रहे हो । प्रभु सच ही मेरे पास हैं । मेरे ही हैं । चलो जियो फिर इसी एहसास को। इसी में राज़ी रहो
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