अर्पण
क्या करूँ अर्पण आपको
गयी थी पुष्प लेने
जैसे ही छुआ
एक सिहरन सी हुई
क्यों तोड़ने लगी हूँ
ये तो आपकी ही कृति
आपकी ही महक इसमें
मेरी सरकार
आपकी वस्तु आपको कैसे दूँ
फिर सोचती हूँ
क्या अर्पण करूँ
ये मन
ये तो सबसे मलिन है
अवगुणों से भरा हुआ
जिसमे कुछ रिक्त नहीं
छल कपट भरे पड़े
प्रेम कहाँ रखूंगी आपका
नहीं नहीं
ये कपटी मन योग्य नहीं
आपको अर्पण करने को
तो क्या अर्पण करूँ
अश्रु धारा निकल पड़ी
ये अश्रु भी धोखा हैं
प्रेम के नहीं
ये तो अपने सुख के अभाव में निकले
आपकी याद में आते तो
यही अर्पण कर देती
पर नहीं
ये भी झूठ है
क्या अर्पण करूँ
सब मलिन है
क्या अर्पण करूँ
मेरी आत्मा
ये तो नित्य आपकी दासी है
ये तो आपसे ही आई है
आपकी ही है
यही आपको अर्पण
शेष तो सब छूटने वाला है
तो यही आत्मा आपको अर्पित है
आपकी ही दासी है
आपकी ही शरण में है
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