हरिहौं बिगरी दसा हमारी
हरिहौं बिगरी दसा हमारी
कौन विध होय भोगन छुटकारा अपनो बल सौं हारी
तुम्हरौ बल ही साँचो नाथा भव सौं देयो मोहे निकारी
साँचो प्रेम हिय माँहिं उपजै कीजौ मोहे प्रेम पुजारी
जन्मन रही गमाय मूढ़ा बाँवरी न कबहुँ तोहे पुकारी
तुम्हरे बल सौं होय छुटकारा भव रोग लाग्यो ऐसो भारी
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