विरहामृत
*विरहामृत*
विरह प्रेम की *परमोच्च* अवस्था है। ऐसी अवस्था जिसमें विरह का ताप स्वयम तक को भस्मीभूत कर देता है। जिसमें स्वयम की भी विस्मृति है , कुछ शेष है तो बस प्रेमास्पद। विरह का क्रंदन , प्रेम का एक मधुर नाद है जो किसी प्रेमी हृदय में ही गूंज सकता है। ऐसा नाद जो भीतर ही भीतर गूंजता हुआ सर्वत्र प्रियतम को ही दृष्टिगोचर करता है। मिलन की अवस्था में प्रियतम समक्ष हैं , परन्तु विरह की अवस्था में कण कण सर्वत्र प्रियतम की ही स्मृति बना हुआ है।
प्रेम जब उदित होता है , तब आरम्भ होती है स्व विस्मृति। जितनी भीतर से स्वयम की आहुति हो रही इस प्रेम यज्ञ में उतनी ही आकुलता व्याकुलता उठ रही प्रियतम के लिए। यही आकुलता जब चरम पर पहुंचती है , जब प्रेमी हृदय इस ज्वाला से दग्ध हो अपने प्रेमास्पद के लिए क्रंदन करता है ,तब सर्वत्र अपने प्रियतम को ही पाता है। प्रेम मौन करता है, इस मूक स्थिति में भीतर से कभी मूकता तो कभी विरह तरँग उठती है। इस विरह का उन्माद बाहर से प्रकट न हो भीतर ही भीतर प्रेमी हृदय को व्याकुल रखता है। ऐसी अवस्था मे मूक सी पुकार भी सहज हो उठती है। मूक सी पुकार , क्योंकि प्रेम एक आंतरिक स्थिति है , पुकार उठ रही है जिसमें प्रेमास्पद स्वयम ही पुकार बन मिल रहा है। वाणी शून्यता की यह अवस्था भीतर से उस प्रियतम का सँग ही है।
विरह प्रेम की दसा होय विरह प्रेम कौ स्वाद ।
विरह तरँग व्याकुल भरै पुनः उठै हिय उन्माद ।।
भीष्म ताप हिय माँहिं उठै अश्रु जल सौं होय सींच।
प्रेम बेल नित्य विरह सौं बढ़े मचै ऐसो प्रेम कौ कीच।।
मिलन में पावै हिय प्रेम कौ आधो सूधो स्वाद ।
विरह चटपटी जब लगै तबहुँ कछु हिय भरै उन्माद।।
भगवत कृपा से किसी जीव के हृदय में भगवत प्रेम उदित हो जावै तो इस विरह का ताप उसके हृदय में संचित सकल कल्मष का नाश कर उसे प्रेमास्पद की नित्य अनुभूति प्रदान करता है। भगवत दर्शह्न से भी कहीं अधिक भगवत विरह , प्रेमानन्द की दशा है।प्रेम एक विवेक शून्य अवस्था है , जहां तृप्ति भी अतृप्ति का सृजन करती है। विरह की अवस्था परम अतृप्ति की अवस्था है जो क्षण क्षण प्रेम को नव नवायमान रस से आप्लावित करती है।
इस *विरहामृत* आस्वादन का लोभ ही श्रीकृष्ण को गौर बना देता है। श्रीराधा कुस प्रकार उनके प्रेम का आस्वादन करती हैं , किस प्रकार वह संयोग में भी विरह स्थिति को अनुभव करती हैं , इसी आस्वादन हेतु श्रीकृष्ण महाभाव स्वरूप हो राधकांति धारण कर गौर बन गए हैं तथा क्षण क्षण कृष्ण के लिए विरहातुर हो रहे हैं। इस विवेकशून्य परम अतृप्त दशा का आस्वादन ही प्रेमसिन्धु कि ऐसी दशा है जिसमे डूब डूब श्रीकृष्ण गौर बन स्वयम को विस्मृत कर चुके हैं।
कृष्णलीला हिय रहै समाई
राधाभाव कृष्ण कु भाई
हिय सों कृष्ण राधाभाव चाह्वे
कैसो नेह राधा हिय समावै
राधाभाव कु करन आस्वादन
कृष्ण आये रूप गौर बन
राधाभाव राधाहिय राधाकांति
कृष्ण पुकारे विरहणी राधा भाँति
कारण बनायो कृष्णनाम प्रचार
कृष्ण धरायो श्रीगौर अवतार
भक्ति बड़ो दुर्लभ होय कलिकाला
हरि दियो मार्ग सहज कृपाला
महामन्त्र को दियो जगत दान
युगल भक्ति प्रेम रस खान
शिव यही गौर दरश जब पावै
गौर गौर कहे नाच दिखावै
पूछे गौरी कौन हिय पायो नाथा
गौर कथा की कह्यो सब बाता
कलियुग नाम भक्ति को धारा
गौरहरि सहज कियौ जन भारा
गौर कृष्ण युगल भेद न कोय
एको राम कृष्ण गौर होय
षड्भुज रूप गौर हरि धारयो
राम कृष्ण कलिगौर अवतारयो
गौर कृष्ण कोऊ भेद न होय
जाने सोई हरि जनाय जोय
ऐसे महाभाव रसराज अवतार श्रीगौरसुन्दर के चरणों मे विनय है कि वह भी हमारे हृदय में अपने विरह के एक कण का आस्वादन करा दें ताकि हमारे विकार ग्रस्त हृदय में कभी भगवत मिलन की लालसा उदित हो।
जय निताई जय गौरहरि!!
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