बाँवरी रही तू अजहुँ रीति

बाँवरी रही तू अजहुँ रीती
कोऊ विध न समझे बाँवरी कैसो निबहे प्रीति
कितनो स्वास व्यर्थ गमाई मूढ़े उम्र गयी तेरौ बीती
बिना नाम स्वासा खोय रहे कौन कारज सौं जीती
हरिनाम कौ धन न तेरौ मूढ़े होय धरती कौ बोझ
भव निद्रा सौं कबहुँ जागे कबहुँ परै साँची सोझ

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