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*शिक्षा अष्टकम*

       *नाम संकीर्तन*

      कलियुग पावन अवतार श्रीमन चैतन्य महाप्रभु जी ने कलियुग के ताप से त्रस्त जीवों के समस्त तापों का हरण करने के लिए हरिनाम पर ही बल दिया है। श्रीहरिनाम समस्त विद्याओं का सार है। श्रीहरिनाम कोई जड़ वस्तु न होकर स्वयं प्रभु का ही चैतन्य स्वरूप है। महाप्रभु जी ने इस बात को दृढ़ता से प्रकट किया है कि नाम तथा नामी में कोई भेद नहीं है। ईश्वर का नाम जन्मों से हमारे हृदय में संचित हुए मल का मार्जन करने वाला है। श्रीहरि का नाम अति सहज है , यह सहजता भी भगवत कृपा से ही प्रकट होती है। सब प्रकार की भौतिक और जड़ कामनाओं का त्याग कर करुणाशील श्रीप्रभु से अपना नाम रस प्रकट करने की प्रार्थना करें , श्रीचैतन्य स्वरूप में तो श्रीप्रभु अपनी समस्त करुणा लुटाने को ही प्रकट हैं। मेरे प्रभु की भक्त वत्सलता तो देखिए ,अपनी लीला में एक एक भक्त के चरण छूकर स्वयं हरिनाम की भिक्षा मांग रहे हैं। भाई तेरे पावँ पडूँ एक बार हरि बोल......
एक बार हरि बोल.......
हरि बोल हरि बोल हरि बोल.....

   श्रीप्रभु तो परम् करुणामयी हैं परंतु श्रीचैतन्य स्वरूप में इनकी करुणा तो समाये नहीं समाती। गौर कृपा अति सहज ,आश्रय केवल श्रीहरिनाम का ही, श्रीगौर नाम का ही। श्रीहरि की भक्त वत्सलता का सागर श्रीगौर रूप में इस प्रकार तरंगायित हो रहा है जिसकी एक बूंद का स्पर्श ही जीव को नामामृत में डुबो कर उस रसराज और महाभाव के साम्राज्य में प्रकट करने की क्षमता रखती है।

   श्रीचैतन्य देव ने अपने शिक्षा अष्टक में नाम संकीर्तन को ही परम तप कहा है ।यही नाम संकीर्तन रूपी तप कलियुग में सर्वथा कल्याणकारी है। पुनः पुनः प्रभु जीवों को भगवत प्रेम प्राप्ति की सहज कुंजी श्रीहरिनाम प्रदान करते हैं। ऐसे करुणाकर प्रभु श्रीचैतन्य महाप्रभु जी की जय हो!परम् कल्याणकारी श्रीहरिनाम  संकीर्तन की जय हो!श्रीहरिनाम संकीर्तन ऐसा उज्ज्वल रस प्रदान करने वाला है, जो चित्त का मार्जन कर उसे निर्मलत्व प्रदान करता है। अशुद्ध चित्त में कभी भगवत प्राप्ति की कामना उदित नहीं होती।जिस अनुपात में श्रीहरिनाम में रुचि होती है , जन्म जन्म से मलिन इस चित्त रूपी दर्पण पर मार्जनी फिरती है जिससे भीतर का उज्ज्वल स्वरूपः प्रकट होता है। वस्तुतः हरिनाम का आश्रय लिए बिना जीव श्रीप्रभु से अपना सम्बन्ध जान ही नहीं सकता।

   विषय वासना रूपी जड़ता अपनी विशाल जड़ें फैलाए रहती हैं , जिससे इस चित्त का मार्जन करना ही कठिन होता है। परन्तु श्रीहरिनाम ऐसी दिव्य मार्जनी बनकर जीव के हृदय से समस्त कल्मष,समस्त विकारों का नाश करने की योग्यता रखता है। वास्तविक रस तो श्रीहरिनाम का चिन्मय स्वरूपः ही है। एक एक विषय ने जीव के चित्त को ऐसे भृमित कर रखा है कि जीव वास्तविक रस का आस्वादन ही नहीं कर पाता। श्रीहरिनाम रूप में स्वयम श्रीहरि ही अवतरित होकर जीव को सामर्थ्य प्रदान करते हैं। श्रीहरि की कृपा के बिना श्रीहरिनाम में अनुराग उदित नहीं होता। विषयी चित्त के मार्जन बिना श्रीहरि के दिव्य प्रेम स्वरूपः की प्राप्ति सम्भव नहीं है। भिन्न भिन्न युगों में ईश्वर की सहज प्राप्ति के भिन्न भिन्न रूप हुए हैं। सतयुग , त्रेता युग , द्वापर युग मे साधना के भिन्न भिन्न मार्ग थे। कलियुग न तो जप तप, साधना , योग , यज्ञ तथा विभिन्न कर्म पद्धतियों का युग है अपितु यह तो सर्वश्रेष्ठ साधना के स्वरूपः को सहज ही प्रकाशित करने वाला है। मात्र नाम संकीर्तन, श्रीहरि के विभिन्न नाम , रूप, गुण का गान ही जीवमात्र के हृदय का परिशोधन करने की सामर्थ्य रखता है।

यज्ञ तप साधन कठिन अति कलियुग माँहिं हरिनाम सहज रे भाई !!

सकल साधन छोड़ देय अबहुँ  बाँवरी हरिनाम की जोड़ कमाई !!

हरिनाम रूप हरि आपहुँ आय जी नाम संकीर्तन प्रथा चलाई !!

स्वास स्वास सों भजो हरिनाम भगवत मिलन की विधि बताई !!

हरिकृपा ते हिय हरिरस उमगावै नाम भजन कीजौ चित्त लाई !!

हरिनाम ही सार होय वेदन को हरिनाम में हरि की कृपा समाई !!

जय जय श्रीगौरहरि

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