हरि मेरो मन

हरि मेरो मन अबहुँ बहुत नचायो
भटकावे मोहे विषयन माँहि नाम न तेरो ध्यायो
पुनः पुनः करे नवीन अभिलाषा मोहे बहुत तपायो
एको अभिलाषा पूर्ण होवै दूसरी आन सुनायो
बनाय दियो मोहे कामी कूकर विष्ठा माँहि भृमायो
जन्म जन्म मोहे दूर कियो तोसे भव माँहि भटकायो
बाँध लीजौ डोरी डार मुख कूकर को चरणन माँहि बिठायो
बहुत विलम्ब होय मेरो ठाकुर अबहुँ न देर लगायो

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