19 तितली अंत
जय जय श्यामाश्याम
विरहणी तितली 19
पता नहीं क्या क्या देखना लिखा है इस तितली के भाग में। कभी कभी तो अनुभव करती है कि ये विधाता बहुत कठोर है। जाने प्रेम पिपासुओं की क्या क्या परीक्षा लेती रहती है। कभी श्री प्रिया जु ,कभी गोपिकाएं, कभी सखा ,कभी वात्सल्य सिंधु यशोदा मैया ,तो कभी नन्दराय जी, यहां तक कि गौएँ , गोप , वृक्ष , पुष्प , लताएँ सभी तो डूब चुके इस विरह सिंधु में। इनको प्रेम की अग्नि कैसे तप्त करती है परंतु कुछ ही क्षण बाद इनकी वेदना इतनी प्रगाढ़ हो जाती है कि श्यामसुंदर के रूप में इनके सन्मुख मूर्तिमान हो जाती है। फिर कैसी दूरी और कैसा विरह। नित्य ही तो श्यामसुंदर इनके सँग हैं। श्यामसुंदर न तो कभी इनके हृदय से गये हैं न ही ब्रज भूमि से।
श्यामसुंदर तो सदैव ही ब्रज मण्डल ने निवास करते हैं , ये तो प्यारे जु की लीला है जो अनन्त काल से चल रही है और अनन्त काल तक चलती रहेगी। श्यामसुंदर हर उस हृदय में हैं जहां प्रेम है। निर्गुण रूप से तो सृष्टि के कण कण में वही हैं। उनके सिवा किसी भी पदार्थ या वस्तु का अस्तित्व ही कहाँ है। हर हृदय जो प्रेम के रंग में पगा हुआ है , वृन्दावन ही है जहाँ उसके प्रियतम श्यामसुंदर का निवास है।
विरहणी तितली ने जहाँ विरह देखा है , वहां श्यामसुंदर सदा ही मिले हुए भी देखे। प्रेम से ही बंधे हुए हैं , प्रेम देव ही हैं। यहीं विरहणी तितली अपनी वाणी को विराम देती है।
जय जय श्यामाश्याम
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