16
जय जय श्यामाश्याम
विरहणी तितली 16
तितली उड़कर गौशाला की ओर जा रही, मार्ग में देखती है कहीं से रुदन की ध्वनि आ रही है। उस स्थान की ओर उड़ चली तो देखती है एक गोपी बहुत व्याकुल अवस्था में रुदन कर रही है। कभी किसी वृक्ष तो कभी किसी वृक्ष से लिपट लिपट रो रही है। तितली उस विरहणी के हृदय के भाव सुनने लगती है। गोपी वृक्षों से ही कहने लगती है, हाय ! मेरे श्यामसुंदर को कभी सुख न हुआ मुझसे। हाय ! उनके रहते कभी उनके सुख का साधन न बनी मैं। कैसी मूढा हूँ मैं , जब तक प्रियतम श्यामसुंदर यहां थे तब मैंने कभी उनके सुख की अपेक्षा न की। अब वह मथुरा चले गए हैं तो मेरे हृदय में ये विरह का शूल नित्य प्रति चुभता है।
कभी एक वृक्ष तो कभी दूसरे वृक्ष से पूछती है, तुम ही बताओ मैं क्या करूँ , हाय ! क्या करूँ मैं। मेरे श्यामसुंदर ! हाय ! मेरे प्रियतम , मेरे प्राणधन मुझे छोड़ गए। तुम बताओ न , तुम्हारे तो वह नित्य रसभरे फल खाते थे। तुम्हारी शीतल छाया से उनको सुख हुआ है। हाय ! मैं कितनी पाषाण हृदय हूँ, मुझसे मेरे कान्हा को कोई सुख न हुआ। हे वृक्षो , हे तरु लताओं तुम सब धन्य हो , जो प्राणवल्लभ श्यामसुंदर के सुख सम्पादन हेतु हो। मुझ पाषाण से तो कोई चेष्ठा भी न हुई। अच्छा ही हुआ न , जो श्यामसुंदर मुझे छोड़ गए। मेरा अभी जीवन व्यर्थ है। मुझे उनके बिना प्राण नहीं रखने। अच्छा होगा यदि मै यमुना जी में कूदकर अपने प्राणों का त्याग करदूँ। उन्मादित सी हुई गोपी यमुना तट की ओर दौड़ती है। उसकी सखी उसकी अवस्था को देख लेती है और तुरन्त उसके पीछे दौड़ पड़ती है।
रुक ! रुक ! ओ सखी ! बाँवरी ! तू क्या करने जा रही थी। तू जानती है जहां की हर वस्तु यहां तक के एक एक रज कण भी श्यामसुंदर के सुख हेतु है। तू भूल गयी तुझे श्यामसुंदर कितना प्रेम करते हैं। तू तो उनकी प्राण है। मै !, उन्मादिनी आश्चर्यचकित हुई कहती है। मै नहीं हूँ ! हाय ! नहीं हूँ मै। मुझे तो प्रेम ही नहीं हुआ श्यामसुंदर से। दूसरी सखी कहती है, सुन श्यामसुंदर हमें अपनी सबसे प्रिय वस्तु देकर गये हैं। वह जिससे प्रेम करते हैं उसे ही यह देकर जाते । इस विरह पीड़ा में भी अनन्त सुख का अनुभव कर सखी। इस पीड़ा में श्यामसुंदर का क्षण क्षण का स्मरण है। इस अवस्था में तो अन्य किसी वस्तु का चिंतन भी नहीं होता, केवल प्रियतम प्राणनाथ ही हृदय पटल पर अंकित रहकर शेष सब विस्मृत कर देते। अब उन्मादिनी को सखी कि यह बात समझ न आ रही। उसे केवल अपने हृदय की व्याकुलता से , उस ताप में दग्ध होकर अपने प्रियतम को पुकारने और उनके लिए अश्रु बहाने के सिवा कुछ भी सम्भव नहीं हो पा रहा। क्षण क्षण का व्याकुल हृदय केवल एक ही पुकार करता है, श्यामसुंदर , श्यामसुंदर.......
कबहुँ न देख्यो मैली अखियन ते मोहन तेरी सुरतिया
याते अंध जनती मोहे जननी जड़वत कोई मुरतिया
बाहर फाग का उत्सव पर हिय मेरो पतझड़ होवै
बाँवरी तू रही बाँवरी नित रोय रोय नैन भिगोवै
छांड देय आस समुझाए लेय हिय कामी जन पावै विष्ठा
नहीं रह्यो तृणवत कबहुँ कोऊ आचरण भुखयो मान प्रतिष्ठा
लोभ मद मत्सर होय हिय माँहि मोहन कहाँ तू बैठाय
समझ बूझ औकात देख अपनी बाँवरी श्याम किस विधि पाय
तितली उन दोनों सखियों की वार्ता सुनती हुई अश्रु पात करने लगती है।
क्रमशः
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