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जय जय श्यामाश्याम
विरहणी तितली 11
अश्रुपात करती हुई तितली आंगन की ओर जाती है तो देखती है मैया तो इधर न है। भीतर कक्ष में जाती है तो देखती है यशोदा मैया कान्हा के आभूषण निकालकर बैठी है। मन ही मन विचार करती है मेरे लला पर ये आभूषण कितने सुंदर लगेंगे। माँ की ममता अपने बालक के सुख हेतु क्या क्या देख लेती है। यशोदा माँ को क्षणिक भी भान नहीं कि उनका लला अब यहां नहीं है। उनकी आँखों में तो अपने लाल की छवि खेल रही है जैसे। भीतर कक्ष से उठ बाहर की ओर आती है और पुकारने लगती है। कान्हा ! कान्हा ! कहाँ हो तुम । शीघ्रता से भीतर आओ मुझे तुम्हारा श्रृंगार करना है।
यशोदा इसी भ्र्म में है कि नन्दसुत गौशाला में गइयाओं संग उछल कूद कर रहे हैं। तत्क्षण ही उसे वहां जाना है और नटखट को पकड़कर लाना है। मैया लला लला करती हुई जाती है। तितली भी बाँवरी सी हुई मैया संग ही उड़ चली है। शायद कान्हा सच ही वहां हैं , प्रियतम की एक झलक पाने की इच्छा ही उसे मैया संग गौशाला की और उड़ा ले गई। वहां का दृश्य देख मैया रुदन करने लगती है।
किसी भी गैया ने ग्रास न लिया है। सभी श्रृंगार हीन ही बैठी है। कुछ तो अधमरी सी लेती हुई हैं। जिनको नित्य प्रति श्यामसुंदर का स्पर्श प्राप्त हो , जिनकी आँखें क्षण क्षण श्यामसुंदर की रूप माधुरी में डूबी रहती , श्यामसुंदर स्वयं उन सबका श्रृंगार करते थे, जिनके कानों में नित्य बांसुरी की ध्वनि गूँज कर उनके तन मन प्राणों को झंकृत करती थी वही आज निष्प्राण सी पड़ी हैं। मैया को इन सबकी दशा देख स्मृति हुई है कि कान्हा तो यहां है ही नहीं। विधाता ने उस पर कैसा बज्रपात किया है। हाय !इस वात्सल्य मूर्ति की पीड़ा देखी नहीं जा रही। मैया वहीं भूमि पर गिरकर अश्रुपात कर रही है। तभी कुछ गोपबालक आकर मैया को संभालते हैं और नन्दभवन के भीतर ले जाते हैं। मैया की भाव दशा आभूषण देख पुनः बदल जाती है।
एक गोपबालक को अपने हाथ से भीतर कक्ष में ले आती है। मैया की दृष्टि उसे कान्हा ही देख रही है। मेरे लला ! तेरा मुख कैसा मलीन हुआ पड़ा है , शीघ्रता से उसके वस्त्र बदल आभूषण लेकर उसका श्रृंगार करने लगती है। बालक चुप चाप माँ के वात्सल्य सुख का आनन्द ले रहा है। उसे भी अपने सखा कन्हाई के वस्त्र आभूषण पहन आनन्द आ रहा है और वह इस वियोगिनी का सुख भंग भी नहीं करना चाहता। जहां अखिल कोटि ब्रह्माण्डनायक इस प्रेम के वशीभूत हैं तो वह गोप बालक भी आज उसी रस से आप्लावित हो रहा है।
नन्दराय जी कक्ष के बाहर से चुपचाप सब दृश्य देख रहे हैं। कान्हा के जाने के बाद यशोदा उन्मादिनी सी ही हो गयी है। अधिकांश समय तो रोती कराहती रहती है। कभी कभी तो अत्यधिक पीड़ा में मूर्छित हो जाती है और कभी ये अनुभव करती है कि कान्हा तो कहीं गया ही न है। जितने भी ग्रह कार्य थे सब लला के लिए ही तो थे। कभी माखन निकाल कान्हा को बुलाती है कभी आभूषण देख। कभी कभी किसी गोपी को भी कह देती है देख अब तू मेरे कान्हा की शिकायत करने नहीं आती न , मेरा कान्हा कोई उद्दंड बालक न है री, गोपियाँ भी उसकी दशा देख देख अश्रु बहाती हैं और उसका मन रखने को कुछ भी झूठी सी शिकायत करती है ताकि माँ का भ्र्म रहे कि कान्हा यहीं है। ऐसा ही हाल सभी ब्रजवासियों का है , जो कोई भी किसी कार्य का संपादन करता है केवल इसी भाव से कि श्यामसुंदर को सुख होगा, अन्यथा सभी उस पीड़ा के सागर में डूबे अश्रुपात ही करते रहते हैं। श्यामसुंदर की किसी भी स्मृति में डूब ही आनन्द लेते हैं नहीं तो आनन्द तो सब उनके आनन्दकन्द कन्हाई के संग ही जा चुका है। तितली सभी के भाव देख देख उन्हीं तरंगों में बहने लगती है।
क्रमशः
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