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जय जय श्यामाश्याम

विरहणी तितली 6

  नेत्रों में अश्रुजल भरे अपने प्राणप्रियतम की विदाई में तितली उनके इर्द गिर्द ही रथ में मंडरा रही है। तितली देखती है असंख्य गोपियाँ रोती हुई रथ के पास आ रही हैं। कोई दौड़ती हुई आ रही है , किसी के पास तो चलने की सामर्थ्य भी नहीं मार्ग में ही गिरी पड़ी है। कोई अपने वात्सल्य सुख को लुटाने आ रही है तो कोई शब्दहीन हो इस वेदना को अश्रुओं से ही व्यक्त कर रही है। कोई गोपी ऊँचे ऊँचे स्वर में मेरे लला ! मेरे कन्हाई ! तू कहाँ जा रहा है मुझे छोड़कर। आज से कभी यशोदा माँ से तेरी कोई शिकायत न करूँगी। ओ लला , हम तो तेरे मुख निहारने के मिस नित्य नन्दभवन में जावें। झूठ सच कुछ भी कहवें लला , पर हृदय तुझे देखने को ही व्याकुल रहे। लला ! तू क्या माखन न खायेगा मेरे हाथ से। इतना कहकर रोती हुई गोपी मटकी से माखन निकाल निकाल उसको प्रेम अश्रुओं से पूरित कर अपने प्यारे के मुख में डाल रही है। बलिहार ! ऐसा दृश्य देखते हुए तो ये बिरहनी तितली जड़वत हुई जा रही है। कान्हा इस गोपी के आनन्द से इतने आनन्दित हुए जा रहे हैं कि झट से उसके वात्सल्य रस को बढ़ाने हेतु उसे अपने हृदय से लगा लेते हैं और कहते हैं मौसी मैं कोई सदा के लिए थोड़ा जा रहा हूँ, तू ऐसे ही अधीर हुई जा रही है। देख तू पहले की भाँति नित्य माखन निकालकर रखना, मैं आ गया तो ये मत कहना तेरे लिए माखन नहीं है, पता है तेरे घर से तो मैंने सबसे ज्यादा माखन चुराया है, इतना सुन वह गोपी अब आनन्द के अश्रु प्रवाहित करती है और पुनः कान्हा को अपने हृदय से लगा लेती है।

   कितनी ही गोपियाँ अपने अपने प्रेम अश्रु अपने कान्हा को समर्पित करते हुए उसे निहारती रहती हैं। तितली देखती है एक गोपी तो इतनी उन्मादिनी हुई है वह तो जाते हुए कृष्ण के लिए डंडा लेकर आ गयी है। ठहर जा रे उत्पाती ! आज तू भाग रहा है देखती हूँ तू कैसे जायेगा एक पग भी बढ़ा आगे तो मुझसे बुरा कोई न होगा। देख नित्य ही तूने मेरे घर से गोबर उठाने का प्रण किया था, तेरे बिना मुझ बुढ़िया के घर से गोबर कोन ले जायेगा। देख तू ऐसे भागकर नहीं जा सकता। हाय ! श्री कृष्ण तो बिके हुए हैं जैसे इस बूढ़ी गोपी के हाथों। सम्पूर्ण सृष्टि का पालन करता इतना प्रेम विवश भी हो सकता है कि बुढ़िया से नित्य डंडे भी खावे और उसकी गईया का गोबर भी उठावे। हाय ! कैसा दिव्य प्रेम है इस मैया का। न जाने किस जन्म में तूने क्या तपस्या की है री जो नन्दनन्दन तेरे घर की चाकरी करें। तितली तो उस बूढ़ी मैया के चरणों में लोट पोट हो रही है। तो लला ! चल मैं तुझे तेरे नित्य के गोबर उठवाने से मुक्त करती हूँ । मत जा मेरे लला , तुझे देखने को ही जैसे इस बूढ़ी देह में प्राण बचे हैं, हाय ! नन्दनन्दन कितने कठोर हो तुम , सबको अपने स्नेह पाश से ऐसे बांधकर रखे हो और एक झटके में छोड़कर जा रहे हो। तितली मन ही मन इन गोपियों संग अश्रु बहा रही और श्री कृष्ण को कठोर भी कह देती है।

    प्रेम वियोगनी गोपियाँ किस प्रकार अपने प्रियतम का वियोग सह सकेंगी। किसी के संग नृत्य, किसी के संग खेलना , किसी के साथ गाना , किसी को छेड़ना, अपनी प्रेम भरी चितवन से घायल करना , यही तो इस नटखट का नित्य का काम है। एक गोपी तो श्यामसुंदर को कहने लगती है झूठे हो तुम झूठे!  नहीं निभा सकते थे तो प्रेम पाश में बांधे क्यों?  तुम तो मुझे यमुना तीर पर मिलने वाले थे संध्या समय और अब मथुरा जा रहे हो। झूठे हो तुम एक दम झूठे। दूसरी गोपी कहती है न सखी ये झूठा न है मुझे तो लगता है हमारे प्रेम में ही कोई कमी रह गयी है जो ये हमें छोड़कर जा रहा है। हम इसे स्नेह ही न दे पाई। इतने में तीसरी गोपी बोल पड़ती है। रहने दे री सखी तू ये बड़ा छलिया है ये छल ही करेगा न हमसे। पहले तो छल से हृदय की चोरी की है और अब छल करके भागा जा रहा है। इस प्रकार तितली गोपियों के प्रेम उलाहने सुनती कभी हँसती कभी रोती तो कभी आश्चर्य चकित हो रही है।

क्रमशः

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