कृष्ण नाम
श्री राधा एक बार एक सखी के मुख से कृष्ण नाम सुनती है तो उसकी दशा विचित्र होने लगी ।कृष्ण ! कृष्ण ! सखी , तुमने सुना ये नाम । ये नाम क्यों मेरे तन मन प्राण को झंकृत करता है। एक बार सुनूँ तो लगता है सुनती ही रहूं। यही नाम मेरे अनन्त जन्मों की तृषा बन गया है सखी। कृष्ण ! कृष्ण ! कितना मधुर है न ये नाम। हाय !एक क्षण के लिए भी बंद न हो ये नाम। कृष्ण
कृष्ण
कृष्ण
सुनती सुनती पता नहीं कैसी उन्मादिनी हुई जा रही है। देखो सखी ये नाम मेरे रोम रोम में भर गया है।
कृष्ण
कृष्ण
कृष्ण
मेरे हृदय का हर स्पंदन कृष्ण हो चुका है। कृष्ण कृष्ण कृष्ण , सखी , मैं ये नाम सुन बाँवरी हुई जा रही हूँ। बता तो कौन हैं ये कृष्ण। क्या तूने देखा है कभी इनको। बता न , चुप क्यों हो गयी तू । देखा है तुमने । हाय ! मुझ अभागिन ने एक बार भी न देखा। पर ये नाम , ये नाम सखी , जैसे मेरे प्राण हो चुका। हाय विधना ! ये क्या उपहास हुआ है मेरे सँग। जिस नाम को सुने बिन एक क्षण न रह सकती, जो नाम मेरे हृदय में समा चुका, हाय ! मेरा रोम रोम हो चुका , नहीं देखा मैंने कृष्ण को। एक बार भी न देखा कृष्ण को। सखी तू बता न , कौन हैं ये कृष्ण और कैसे हैं। बता दे मुझे , मेरे तन मन प्राण सब व्याकुल हुए जा रहे हैं।
मुझे अपने कानों के भीतर यही नाम सुन रहा है।
सखी, एक बात तो बता, कहीं मैं ही कृष्ण तो नहीं हूँ। हाँ , हाँ, सखी मैं ही हूँ न कृष्ण । कृष्ण हूँ मै। मैं और कृष्ण दो कैसे हो सकते है। मुझे स्मृति ही न रही सखी। देख इस नाम को सुन कैसी बाँवरी हो गयी न मैं।
कृष्ण
कृष्ण
कृष्ण
सखी मैं ही तो कृष्ण हूँ । सखी कृष्ण का एक चित्र लाती है श्यामा उस चित्र को देखती है और दर्पण में निहारने लगती है वही प्रतिबिम्ब उसे दर्पण में दीखता है। हा हा हा , सखी देख न
दर्पण में देख न, मैं ही तो हूँ कृष्ण । प्रेम में ऐसी बाँवरी है कि दर्पण निहारते हुए भी स्वयं को विस्मृत कर देती है। कुछ शेष है तो केवल कृष्ण कृष्ण कृष्ण
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