10
जय जय श्यामाश्याम
विरहणी तितली 10
नन्दभवन की ओर बढ़ तो रही है परंतु हृदय बहुत भरा हुआ है। देखती है एक गोपी भोर संध्या समय जब श्यामसुंदर गोचारण को जाते और लौटते हैं उस मार्ग पर बैठ जाती है। पुनः पुनः अपने प्रियतम प्राणधन का मार्ग निहारती है। मन में यही आशा रखती है कि श्यामसुंदर सुबह शीघ्रता से चले गए हैं मै उनके दर्शन सुख से वंचित रह गयी हूँ अभी यहीं रुक जाती हूँ क्या पता श्यामसुंदर शीघ्र लौट आये तो मुझे एक झलक भी न मिलेगी। आशा ही है जो प्राणों को रोके हुए है।
सखी री कौन देस गए सजना
तड़पत रहूँ जल बिन मीन समाना सूना मोरा अँगना
साज सिंगार मोहे नाँहि सुहावत खनकाऊं नाँहि कँगना
और कोऊ रंग चढे ना साँवरे मोहे तेरोे ही रंग रँगना
चाव रह्यो हिय माँहि मिल्न को और कोऊ रह्यो उमंग ना
श्याम पिया विलम्ब कियो अति भारी प्राण रहें देह संग ना
जाने प्रियतम कौन से देश में जा बैठे हैं। बिरहनी को कुछ न सुहा रहा , व्याकुलता में लगता है जैसे प्राण ही देह छोड़ जायेंगे। इस प्रकार की स्थिति जाने कितनी ब्रजांगनाओं की हो चुकी है । तितली इस पीड़ा का अनुभव करती है और देखती है बिना नन्दतन्य के समस्त ब्रजवासी ही व्याकुल हैं। नन्दभवन में उसे कोई चहल पहल न दिख रही है। तितली उड़ उड़ भीतरी कक्ष में जाती है तो उसकी दृष्टि नन्द बाबा पर पड़ती है। पुत्र के वियोग में नन्दराय जी भीतरी कक्ष में बैठे रुदन कर रहे हैं। श्यामसुंदर का एक चित्र उनके हाथ में है जिसे वह पुनः पुनः निहारते हैं और पुनः पुनः हृदय से लगाते हैं।
तितली इस शोकातुर पिता की स्थिति को समझती है। वह चाहे ब्राह्य रूप से किसी से अपना कष्ट न कह सकें , भीतर का रुदन तो एकांत में फूट पड़ता है। कान्हा की माँ के सन्मुख भी अपनी पीड़ा व्यक्त न कर सकते क्योंकि उस वियोगिनी के समक्ष इनके अधर एक भी शब्द का उच्चारण करने में असमर्थ हो जाते हैं। वहाँ तो अपनी अर्धांगिनी की पीड़ा से अत्यंत शोकातुर हो जाते हैं। एकांत में अपना दुःख कैसे छिपा सकते हैं। परंतु इस तितली ने इनके मन की पीड़ा को देख लिया है और एक पिता की स्वाभाविक पीड़ा को समझा है। उस चित्र से कभी कुछ बात पूछते हैं , कभी तो ऐसे अनुभव करते हैं कि कन्हाई ने इन्हें उत्तर दिया है और आनन्दित होते हैं और एक क्षण को अनुभव करते हैं कि कान्हा लला तो नहीं है ये तो चित्र है तो पुनः शोक सागर में डूबते जा रहे हैं। हाय ! विधाता इनकी पीड़ा भी मुझ पाषाण हृदय को देखनी थी। हाय ! मेरा हृदय इस पीड़ा से फट क्यों नहीं जाता। क्यों मेरी देह अभी तक प्राणों को धारण किए हुई है। शोकातुर तितली वहां से हट मैया यशोदा को ढूंढने लगती है।
क्रमशः
Comments
Post a Comment