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जय जय श्यामाश्याम
विरहणी तितली 7
हाय री विधना ! ये कैसे खेल तेरे, व्याकुल तितली अपने प्राणप्रियतम के इर्द गिर्द मंडराती हुई रुदन करती है और प्रेम मई गोपियों की दशा देख रही है। एक गोपी तो श्री श्यामसुंदर के रथ की और दौड़ती हुई आ रही है परंतु जैसे ही अपने प्रियतम की छवि देखती है तत्क्षण मूर्छित हो जाती है। उसे देख देख अन्य गोपियाँ रुदन करने लगती हैं। जब तक प्राणनाथ का स्पर्श न हो इस विरहणी की मूर्छा कैसे टूटेगी। आज तो श्यामसुंदर इसे किसी चेष्ठा से चेतन कर भी दें परन्तु जाने ये मथुरा कितने दिन के लिए जा रहे हैं, इनके पीछे क्या दशा होगी इसकी।
कितनी और गोपियाँ मार्ग रोककर खड़ी हैं और निरन्तर रुदन कर रही हैं। उनकी दशा देख देख श्यामसुंदर ऊपर से तो उन्हें मनाने की कोशिश में हैं परंतु उनके हृदय की क्या दशा है ये किसी के समक्ष प्रकट न है। लीला को तो आगे जारी रखना ही है , भीतर से तो श्री हरि जानते हैं कि पुनः लौटना भी न होगा। जैसे अपने नेत्रों में समा लेना चाहते हैं इन स्मृतियों को। श्यामसुंदर न तो कभी ब्रज से बाहर गए न ही अपनी लीला में कभी ब्रज का स्मरण छोड़े। परन्तु ये क्षण उनके हृदय को व्याकुल कर रहा है इस पीड़ा को वह चुपचाप पी रहे हैं।
समस्त और श्री श्यामसुंदर के जाने की पीड़ा इस प्रकार फैली हुई है कि न तो पक्षियों का कलरव है न ही मयूर का नृत्य। पुष्प भी मुरझाये से सुगन्ध हीन प्रतीत हो रहे हैं। आज तो जैसे जड़ चेतन सभी अपने प्राण प्रियतम के विरह में विकल हो उठा है। इस तितली की भी क्या विवशता है न तो ये श्यामसुंदर को छोड़ सकती है न ही पीछे लौट सकती है। बड़ी गहरी पीड़ा में है क्योंकि न केवल इसने समस्त प्रेमी जन की पीड़ा देखी इसने तो अपने प्राणनाथ श्यामसुंदर को भी अश्रु प्रवाहित करते देख लिया जिसे वह अपने अग्रज से छिप प्रवाहित किए और पीताम्बर के छोर से पोंछ लिए। हाय ! कैसे रोक सके अपने हृदय की पीड़ा को। ये तितली भी इस वेदना से टूट चुकी है लगता है इस पीड़ा से प्राण हीन ही हो जायेगी। अब रख के संग और उड़ने की भी सामर्थ्य न रही इसकी। पर कटी निष्प्राण सी तितली अब मन में विचार करती है कि न तो आगे जाने की सामर्थ्य न ही पीछे लौटने की सामर्थ्य। तुरन्त ही रथ से उड़ पड़ी है और पास ही एक झाडी पर बैठने लगती, वहीं लगे काँटों से इसके पंख उलझ लहूलुहान हो चुके पर इसे देह की पीड़ा से अधिक तो हृदय की पीड़ा तप्त कर रही है। नेत्र से मूंद रहे इसके परन्तु दृष्टि दूर जाते हुए रथ की तरफ लगी है । जहां तक धूल उड़ रही है इसके नेत्र एकटक देख रहे हैं उसके पश्चात इसे स्वयं की भी स्मृति न रही।
क्रमशः
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