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जय जय श्यामाश्याम

विरहणी तितली 13

   सच में गोपियाँ तो प्रेम की ध्वजा है , ब्रज में जैसा कान्हा से, अपने श्यामसुंदर से सभी प्रेम करते हैं वैसा प्रेम इस जगत में दुर्लभ ही क्या सम्भव ही है। हमारे ब्रेजेन्द्रनन्दन नन्दतन्य नीलमणी श्यामसुंदर हैं भी तो ऐसे ही , तो उनकी लीलाएं भी अद्भुत प्रेममयी हैं।

   तितली देखती है कि कान्हा के मथुरा जाने के बाद यहां कुछ भी तो पहले जैसा न रहा है। अधिकांश समय तो ब्रजवासी रुदन करते रहते हैं तथा इस विरह पीड़ा में इनकी भाव दशा ही बदल जाती है। कोई तो उन्माद से भर श्यामसुंदर को ही सर्वथा देखती है , कोई स्वयं भी रोती है तथा दूसरों को भी रुला देती है। कोई तो कितने दिन से शैया पर ही औंधे मुँह पड़ी निरन्तर अश्रु पात कर रही हैं तो कोई मार्ग पर जाकर अपने प्राणधन की प्रतीक्षा कर रही हैं। सत्य ही तो है इस प्रेम मार्ग पर प्रतीक्षा ही तो आभूषण है जिसे धारण कर गोपियाँ श्रृंगार करती हैं। यदि इन गोपांगनाओं को ज्ञात हो जाए कि इनके प्रियतम प्राणधन अब न लौटेंगे तो इनके जीवन का उद्देश्य ही क्या रहेगा।

   तितली देख रही है एक विरहणी यमुना तट पर बैठी अश्रु प्रवाहित कर रही है। श्यामसुंदर का विरह उसके हृदय से विरहगान बन झर रहा है

कही जाए ना बिरहा पीर
नैन झरे मोरे सखी रैन दिन,क्षण क्षण रहूँ अधीर
नैना बिन देखत अकुलावें ,बरसें ज्यूँ बरसे नीर
सुधि बिसरी खान पान सब छुट्यो ,काँटों भया सरीर
प्रियतम बिन अकुलावे बाँवरी, बैठी जमुना तीर
आवो प्रियतम आन मिलो अबहुँ , मेटे न मिटे याहि पीर
तुम्हीं आवो सुधि लो नाथ मेरो ,प्राण जावै छोड़ि सरीर

  सच इनके जैसा प्रेम करने वाला श्यामसुंदर को कहां मिलेगा। क्या कान्हा को मथुरा में कोई तरुणी इतना प्रेम करती होगी। क्या कान्हा कभी न लौटेंगे , इस तरह के कई प्रश्न तितली तो क्या किसी किसी गोपी के हृदय में भी उठते रहते हैं, परन्तु ये तो उस लीलाधारी की लीला है। तितली उड़ती उड़ती अपनी प्राणेश्वरी श्यामा जु की ओर उन्मुख होती है।

   श्यामा जु की भाव दशा आज विचित्र है, कितने दिन से तितली श्यामसुंदर के वियोग में श्यामा को प्राणहीन , मलिन मुख और अध् खुली वेणी में देखती रही है परंतु आज तो इसकी प्राणेश्वरी स्वामिनी जु अत्यंत उल्लाससित हैं। इतना अद्भुत श्रृंगार और मृदल मनमोहिनी मुस्कान , आहा ! तितली अपनी स्वामिनी जु पर पुनः पुनः बलिहार जाती है। स्वप्न में श्यामसुंदर राधा के पास आये थे, जब से प्रातः से जगी है हर ओर ही इसे श्यामसुंदर दिख रहे हैं। कहाँ तो सखियाँ इन्हें बातों में लगा लगा इनके कार्य सम्पन्न करती , इनके मुख में दो चार कोर अन्न के देती हैं परंतु आज तो श्यामसुंदर से मिल्न की बेला की स्मृति तथा हर ओर श्यामसुंदर को देखना ही प्यारी जु को उन्मादित किये है। श्री राधा वृक्षों की डाल पकड़ पकड़ घूम रही हैं। उनके मुख से ये भाव  निसृत हो रहे हैं।

श्याम पिया मैं पायो सखी री
श्याम पिया मैं पायो

बहु दिन ते विरह वेदना जरिहौ
अबहुँ पिया घर आयो सखी री
श्याम पिया मैं पायो सखी री
श्याम पिया मैं पायो

बन बन मयूरी पिया संग डोलूँ
अति आनन्द रहे छायो सखी री
श्याम पिया मैं पायो सखी री
श्याम पिया मैं पायो

पिया निरखे मोहे मैं पियु निरखुँ
प्रेम ना उर माँहि समायो सखी री
श्याम पिया मैं पायो सखी री
श्याम पिया मैं पायो

सब सखियन मिल सेज सजाई
श्यामा श्याम धरायो सखी री
श्याम पिया मैं पायो सखी री
श्याम पिया मैं पायो

  आज तो तितली भी श्री राधा को देख बहुत देर बाद प्रसन्न हुई है तथा अपने प्राणधन श्यामसुंदर की स्मृति में खोना चाहती है।

क्रमशः

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