12

जय जय श्यामाश्याम

विरहणी तितली 12

   तितली जहाँ भी देखती है हर कोई ब्रजेन्द्रनन्दन श्री श्यामसुंदर की प्रीती में व्याकुल है। गोपियों की दशा तो और भी विचित्र है। एक गोपी की भाव दशा इस प्रकार है कि उसे तो श्यामसुंदर से प्रेम ही न करना है। वो निर्मोही हमें छोड़कर चला गया है। अच्छा ही हुआ री जो मैंने उससे प्रीत न की। नहीं तो मेरा भी इन सबके जैसा हाल होता। मैंने तो सदा उसे ताहने उलाहने ही दिए हैं। ये सब गोपियाँ तो माखन सी कोमल और मिश्री सी मीठी हैं तभी उसके प्रेम में डूबी हुई हैं। मेरा तो स्वाभाव ही कड़वा है , मैं तो नमक समान खारी हूँ । अच्छा ही हुआ री मुझे उससे प्रेम न हुआ ।

   न कर मोसे प्रेम कन्हाई नित नित उलाहने दूँ तुमको
अब न आना मेरी गली तुम अब न कुछ कहूँ तुमको

ना मैं माखन मिश्री सी मीठी हूँ कड़वी कुछ खारी जी
नहीं लगाना हृदय यहाँ कभी बात बने न तुम्हारी जी

क्यों मेरी गली तुम आवो नित नित सुनने ताहने जी
क्या तुमको मीठे लगते हैं कड़वे मेरे उलाहने जी

हृदय मेरा है प्रेम विहीना कैसे तुम सुख पाओगे
अब नहीं आना पास मेरे तुम प्यासे रह जाओगे

प्रेम नहीं हृदय में मेरे नित्य करूँ तुमसे झगड़ा
नहीं फोड़ना मेरी मटकी कलह करूँ तुमसे तगड़ा

देखो कन्हाई अब हट जाओ अब न तुमसे बोलूंगी
प्रेम है कितना तेरे हृदय में अब मै नहीं टटोलूंगी

कैसे रूठूँ तुमसे प्यारे मुझे ये भी अधिकार नहीं
रूठती यदि प्रेम होता तुमसे ऐसा मेरा व्यवहार नहीं

मन की सुनती रही सदा से अब मन को हार चुकी
प्रेम भी तुमसे झगड़ा भी तुमसे तुममें स्वयं बिसार चुकी

        उसकी बात सुनकर दूसरी गोपियाँ हँसने लगती हैं । तितली इन सब गोपियों के प्रेम रस को देखने इनके आस पास मंडराने लगती है। दूसरी गोपी कहती है तू भी बड़ी भोली है री, यदि तुझे प्रेम न होता तो तेरे मुख पर श्यामसुंदर का नाम आना भी सम्भव न था री। हम सब तेरे हृदय में छिपे उस प्रेम को भांप चुकी हैं , यहां कोई भी हृदय ऐसा न है जिस पर श्यामसुंदर का प्रेम बाण न चला हो। एक कहती है उस निर्मोही की किसी के अश्रुओं से कोई अंतर न होगा वह निर्लज्ज तो मथुरा में हँस रहा होगा। तितली सब गोपियों की प्रेम दशा देख देख आनन्दित हो रही है। तभी देखती है एक गोपी जो निरन्तर अश्रु प्रवाहित करती है वह अपने प्रियतम के सुख हेतु विधाता से क्या प्रार्थना कर रही है।

    अपनी सखी द्वारा श्यामसुंदर को निर्मोही कहना उसके हृदय को व्याकुल कर गया है। वह कहती है ,ओ सखी ! तू कहती है मैं रो रही हूँ और प्रियतम मुझे छोड़ यदि वहां प्रसन्न हैं तो उनकी प्रसन्नता बनी रहे।  हाय ! उनको यदि मेरे एक भी अश्रु से सुख हो तो , हे विधाता ! मेरे इन नैनों में अनन्त कोटि अश्रु सदा प्रवाहित होते रहें। अश्रुओं का महासागर रूप हो जाये सखी मेरा उस महासागर में जो लहरें उठती रहें उससे मेरे प्राणधन को सुख हो।

   यदि उनका सुख विरह में है , तो मै मिल्न की इच्छा क्यों करूँ री। मैं तो निर्लज्ज ठहरी, मैंने केवल अपने सुख की ही कामना की। हे विधाता ! यदि मेरे प्रियतम का इसी में सुख हो तो मुझे अनन्त जन्मो का विरह मिले। इस विरह की तप्त अग्नि में सदैव तापित रहूँ सखी , केवल यही आशा मेरे हृदय को सुख दे कि मुझसे किंचित मात्र भी मेरे प्राणधन को सुख हो रहा है। ओ सखी ! यदि उनको मेरे हृदय की व्याकुलता ही देखनी हो , मुझे एक क्षण भी संतोष न हो। मुझे अपने सुख का कोई साधन न चाहिए सखी । मेरे प्रियतम का सुख ही सदैव मेरा सुख हो। मैं सदा इसी व्याकुलता से पीड़ित रहूँ सखी यदि इससे उन्हें तनिक भी सुख हो।

   मेरे हृदय में ये जो प्रियतम के लिए पुकार उठती है यदि ये पुकार यदि उनको मीठी लगे तो सखी मैं सदा सदा यूँ ही पुकार लगाती रहूँ। मेरी पुकार अनन्त युगों तक रहे। हृदय से केवल एक ही पुकार उठे  , मेरे प्रियतम !  मेरे प्रियतम ! ओ विधना ! मुझे केवल इतनी आशीष दो , मैं अपने प्रियतम को अनन्त काल तक सुख दे सकूँ। यदि ये अश्रु , विरह, व्याकुलता और ये पुकार ही उनके प्रेम का प्रतीक है तो मुझे इसी से सुख हो।

नित्य नित्य यूँ बहें अश्रु प्रियतम

तेरा सुख कहें निशदिन प्रियतम

ये विरह वेदना सदा रहे प्रियतम

जो सुख तेरा सदा कहे प्रियतम

हृदय सदा रहे व्याकुल प्रियतम

यदि बने तेरे अनुकूल प्रियतम

नित्य नित्य उठे पुकार प्रियतम

यदि तुझको हो स्वीकार प्रियतम

मेरा हृदय तेरा नाम रटे प्रियतम

कभी मुख से नहीं हटे प्रियतम

मेरे प्रियतम मेरे प्रियतम ........

    तितली इन गोपियों के प्रेम पर न्यौछावर हो रही है। पुनः पुनः उसके मन में यही भाव आता है कि ये गोपियाँ तो प्रेम की साक्षात् मूर्तियां हैं, इनकी चरण रज भी मुझे प्राप्त हो जाये तो किंचित इस शुष्क हृदय में प्रेम प्रकट हो। यही सोच सोच तितली इनकी चरण रज में लोट पोट होने लगती है।

  क्रमशः

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