चैतन्य मम प्राण सुख राशि

*चैतन्य मम प्राण सुख राशि*

   चैतन्यता ही मानव जीवन का सार है। जन्म जन्म की जड़ता जीव को भगवत विमुख कर देती है। भोग विलास की गाढ़ी अति गाढ़ी परतें उस चैतन्यता को ढक देती हैं , की जीव भूल जाता है कि वह उस महचैतन्यता का ही एक अंश है, एक नित्य अंश है उस नित्य चैतन्यता का। वही चैतन्यता ही तो प्राणों का सुख सार है।

       प्रत्येक जड़ वस्तु जड़ होकर भी उस चैतन्य तत्व को समाहित किये हुए है। उस चैतन्य के स्पर्श के बिना वास्तव में कुछ है ही नहीं, आवरण ही मात्र, आवरण।जिस प्रकार भूमि में एक बीज गिरकर फूटता चला जाता है, कर्मानुसार वृद्धि को प्राप्त होता है। चैतन्यता के स्पर्श से जड़ में छिपी चेतना भी फूटने लगती है, वस्तुतः वहां जड़ तो केवल आवरण मात्र ही था।भीतर तो उस महाचेतना का ही साम्राज्य है। वास्तविक स्वरूपः उस महा चेतना का ही एक कण जो उस रूप को विस्मृत कर भिन्न भिन्न जड़ीय आवरणों में खेलता रहा, स्वयम को वही समझता रहा। जन्म जन्म बदले आवरण बदले परन्तु वास्तविक स्वरूपः से दूरी ही वास्तविक पीड़ा । जितना स्पर्श उस चेतना का भीतर उतरता उतनी जड़ता छुटती जाती है , परन्तु उस चैतन्यता में भरती जाती है एक पीड़ा, मर्मान्तक पीड़ा ,एक क्रंदन,एक जागृति , एक विस्मृति,क्योंकि चैतन्यता के स्पर्श से चैतन्यता ही भरती जा रही है भीतर।

    अपने नित्य स्वरूपः की विस्मृति ही सबसे बड़ी पीड़ा है।जो पीड़ा उतरती जाती है प्राणों में , वही क्रंदन ही जीवन हो जाये तो तो उस महासमुद्र से छुटी हुई कणिका पुनः उस चैतन्य सिन्धु में लुप्त हो जावे। उस चैतन्य का स्मरण ही उस यात्रा के पड़ाव हैं।निरन्तर प्राणों की पुकार, निरन्तर प्राणों का क्रंदन ही उसमें समाहित होने की व्याकुलता ही उस सिन्धु की ओर प्रवाहित करती है।यही नाम प्राणों का वास्तविक सुख है।यही नाम जीव को नित्यानंद की प्राप्ति करवा उस सुख सिन्धु में निमज्जित करवा सकता है।

श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानंदा
हरे कृष्णा हरे राम श्रीराधे गोविंदा

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