तृषातुर चातक नेत्र
*तृषातुर चातक नेत्र*
श्रीप्रिया पलँग पर बैठी हुई हैं जिनकी कमर पलँग से सटी हुई है। श्रीप्रिया जु विचित्र दशा में बैठी हुई हैं, नेत्र मूंदे हुए हैं , स्वास अति तीव्र गति से चल रही है, पूरी देह कंपकपा रही है , भीतर एक ही नाम चल रहा है श्यामसुन्दर...श्यामसुन्दर.....श्यामसुन्दर......।अधरों से यह नाम बाहर भी नहीं आ रहा, परन्तु प्रति स्वास अपने प्रियतम के नाम से ही चल रही है। श्रीप्रिया जु के अधर कंपकपा रहे हैं तथा बाहर की दशा को विस्मृत कर इसी नाम को भीतर ही भीतर प्रति स्वास ले रही है।
तभी श्यामसुन्दर की दृष्टि श्रीप्रिया जु पर पड़ती है। उनके नेत्र जैसे श्रीप्रिया जु के अधरों पर ही टिक जाते हैं। बाहर भीतर आती स्वास उन्हें अपना ही नाम सुना रसराज को रसतृषित किये जा रही है।अधर इस अनुराग से रंजित हुए एक आमंत्रण दे रहे हैं। श्रीप्रियतम व्याकुल हुए प्यारी जु के अधरों पर दृष्टि टिका रहे हैं तथा प्यारी जु के हृदय स्पंदनों को अनुभव कर रस आवेशित हुए जा रहे हैं। श्रीप्रिया जु की नकबेसर का मोती जो पुनः पुनः उनके अधरों पर झूल रहा है , श्यामसुन्दर की व्याकुलता को बढ़ा रहा है। कुछ क्षण श्रीप्रियतम स्वयम को वही मोती अनुभव कर पुनः पुनः अधर सुधा का पान करने लगते हैं।
श्रीप्रिया जु उसी स्थिति में बहुत देर से बैठी हुई हैं। प्रत्येक स्वास, प्रत्येक स्पंदन, प्रत्येक नाम भीतर उनका नित्य मिलन ही है अपने प्रियतम से। बाहरी दशा को पूर्णतः विस्मृत कर चुकी हैं। श्रीप्रियतम की स्थिति इस रस सिन्धु में मीन की भांति हुई जा रही है जो नेत्रों से अधर सुधा का पान करते हुए अघाते नहीं हैं।
रसराज के चँचल नेत्र नकबेसर के मोती से हट श्रीप्रिया के मुख कमल पर झूलती हुई अलकावली में लिपटते जा रहे हैं। जैसे जैसे यह अल्कावली श्रीप्रिया के मुख पर लहरा रही है श्रीप्रियतम के तृषित नेत्रों की तृषा बढ़ती जा रही है। श्रीप्रिया के मुखमंडल के सौंदर्य को अपने नेत्रों द्वारा पान करते जा रहे हैं परन्तु उनकी सम्पूर्ण रस लालसाएं तो इस रस सिन्धु में डूब कर भी शेष और शेष और और........ गहराती जा रही हैं......
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