सखी ही श्याम लीला

सखी ही श्याम
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किशोरी जू बहुत व्याकुल हो रही हैं। श्यामसुन्दर बहुत विलम्ब कर दिए आने में। किशोरी जू को उनका विलम्ब असहनीय हो रहा है। वो एक सखी को बार बार कहती हैँ देखो श्यामसुन्दर आये या नहीं । सखी पुनः पुनः देखती है कि आज तो श्यामसुन्दर आ ही नहीं रहे। मेरी स्वामिनी जू कितनी अधीर हो रही हैँ।  कहीँ सब सखियों ने कान्हा जू के संग विनोद किया और उनसे नृत्य करवाया और खूब हँसी की इस बात से कान्हा आ ही नहीं रहे। सखी के मन में पुनः पुनः पहली बात की स्मृति हो रही है। पर ये बात अपनी स्वामिनी जू को कैसे कहें। उन्हें तो धैर्य धराना होगा अन्यथा उनकी स्थिति सम्भल नहीं सकेगी। सखी श्री जू को कहती हैं राधे जू ! श्यामसुन्दर आ ही रहे होंगें । अवशय ही उन्हें कोई ऐसा कार्य हो गया जो टाला नहीं जा सके। मैं आपको श्यामसुन्दर की कल की बात बताती हूँ। सखी के मुख से श्यामसुन्दर की वार्ता सुनते हुए श्यामाजु कुछ समय तक अपने अधीर हृदय को सम्भालती हैँ। कुछ समय पश्चात श्री जू को श्यामसुन्दर का विरह सहन करना अत्यंत कठिन होने लगता है। श्री जू मान धारण कर लेती हैं। श्री जू एक सखी को बुलाकर कहती हैँ तुम द्वार पर खड़ी हो जाओ। श्यामसुन्दर आवें तो उन्हें लौटा देना । भीतर नहीं आने देना उन्हें।
 
     सहसा उनकी भाव स्थिति परिवर्तित होने लगती है। वो अपनी सखी को ही श्यामसुन्दर समझ बैठती हैँ। ये श्यामा की कोई नई बात नहीं रही। व्याकुलता बढ़ती है तो उन्हें श्यामसुन्दर किसी भी रूप में प्रतीत होने लगते हैँ। ओ श्यामसुन्दर ! तुम इतनी देर कहाँ थे। जानते हो न मैं इतनी देर तुम्हारे बिना नहीं रह सकती। तुम नित प्रतिदिन मेरी परीक्षा क्यों लेते हो । श्यामा उस सखी का पुनः पुनः आलिंगन करने लगती हैँ। सखी भी सोचती है कि श्यामा जू को अभी यूँ ही रहने देती हूँ। कम से कम श्यामसुन्दर के आने तक इन्हें व्याकुलता तो नहीं होगी। भीतर से सखी सोचती है कि यदि श्यामसुन्दर पहली बात को लेकर क्रोध में हुए और न आये तो श्यामा जू कितनी देर यूँ ही व्याकुल रहेंगीं। सखी अभी श्यामा जू के आनन्द में ही आनन्दित हो रही है। श्यामा जू कहती है श्यामसुन्दर तुम शीघ्रः लौट आया करो। कभी सखी को श्यामसुन्दर समझ निहारने लगती है कभी उसका आलिंगन करती हैँ। इस सखी की दशा भी विचित्र होती जा रही है।

    उधर श्यामसुन्दर आ जाते हैं। द्वार पर खड़ी सखी उन्हें कहती हैं आपको भीतर जाने की आज्ञा नहीं है। क्यों मैंने क्या किया है ? आज श्री जू आपके विलम्ब के कारण बहुत पीड़ा में हैँ वो आपसे रूठ गयी हैँ। सखी मुझे भीतर जाने दो मुझे मिलना है श्यामा से। नहीं नहीं कदाचित नहीं स्वामिनी जू की आज्ञा नहीं है। आप भीतर नहीं जा सकते। कान्हा उस सखी की बहुत मनुहार करते हैँ। सखी को कान्हा की स्थिति पर दया आने लगती है। श्यामसुन्दर आखिर मेरी स्वामिनी जू के प्राणवल्लभ हैं। श्री जू कभी इनसे रूठ नहीं सकती । उनका मान भी क्षण भर का होता है। सखी को स्वामिनी जू के हृदय की स्थिति ज्ञात है। अच्छा आप बाहर रुको मैं भीतर स्वामिनी जू से आज्ञा लेकर आती हूँ। सखी भीतर की ओर जाती है तो क्या देखती है स्वामिनी जू तो एक सखी को श्यामसुन्दर ही समझ बैठी हैं। उसका कर अपने करों में लेकर नैन मूँद कर बैठी हुई हैँ। वो सखी बाहर से आने वाली सखी को श्यामसुन्दर के आने का पूछती हैँ तथा कहती हैं उन्हें शीघ्रः भीतर भेज दो। सखी पुनः बाहर जाकर श्यामसुन्दर को भीतर भेज देती हैँ।

      भीतर बैठी सखी श्यामसुन्दर को इशारा करती है। श्यामसुन्दर उसकी जगह आकर बैठ जाते हैँ और श्री जू का कर अपने कर में ले लेते हैँ और सखी चली जाती है। जैसे ही श्यामसुन्दर का कर श्री जू के कर से स्पर्श करता है श्री प्रिया जू धीरे से अपने मूँदे हुए नैन खोलती हैं और श्यामसुन्दर को अपने समक्ष देखती हैं। उनके लिए तो श्यामसुन्दर पहले से ही मौजूद थे। श्यामा उन्हें पुनः आलिंगन में ले लेती हैं और सखियाँ युगल के आनन्द से आनन्दित होती हैँ।

    इस अद्भुत प्रेम की जय हो

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