वो बरसना चाहती है
वो बरसना चाहती है
वो बिखरना चाहती है
तुममें ही खोकर वह फिर
कुछ निखरना चाहती है
है कैसा प्रेम ज्वार उठा
जल में जल मिलने को आतुर
तुम में खोकर तुमसी होकर
फिर से सजना चाहती है
करती है मधुर श्रृंगार तेरा
घन दामिनी ज्यों मिल बरस उठे
क्षण क्षण हृदय का उमगना वह
वर्षा सा बरसना चाहती है
है तेरी ही ख़्वाहिश उसमें
जो उसे मचलना सिखाती है
मिलकर तुमसे नई सी आज
इक बार महकना चाहती है
है प्यास वह सच तुम्हारी ही
जो पीकर भी न बुझी कभी
फिर प्यास देकर कुछ और नई
वह फिरसे उमड़ना चाहती है
जो रोकने से भी रुकती नहीं
यह प्रेम की बारिश मधुर बड़ी
क्यों आज फिर टूट टूट करके
बन दामिनी मचलना चाहती है
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