सब कुम्हार ने करना है
जीवन है एक रंग मंच
अभिनय करना है
ये भी कुछ ऐसे करना
उनको रसमय करना है
जगत सब लीला है तेरी
भाव समर्पण करना है
भगवत सुख हेतु ही
कर्म सब अर्पण करना हैं
मूल प्रेम स्वरुप को
इश्वरोन्मुख करना है
दोष हटाने के लिए
साधन सत्संग करना है
आहार विहार से त्रिगुण
अभिमान ना करना है
अपना भी प्रयास न हो
दृश्य राग रहित करना है
संसार से सम्बन्ध मिटा
प्रभु समर्पण करना है
श्रम संयम सदाचार
बिन प्रयास ही होगा
जीवन इश्वररूप हो
शरणागत करना है
दोष की काष्ट जलाना
गुनाभिमान ना करना है
मृदुलता ईश्वरीय कृपा
इसका अभिमान न करना है
सत रज तम हटा कर
सहज प्रीत दर्शन करना है
प्रवृति और निव्रत शून्य
स्व रहित भजन करना है
सुख और दुःख में समान
मन आसक्त ना करना है
स्वर्ण और रज में भेदरहित
फिर रस का बढ़ना है
नित विरह और मिलन से
जीवन रसवर्धन करना है
सारा रस प्रीतम के हेतु
बस आयोजन करना है
अभीप्सा छह चिंता नही
बस अभिनय करना है
नित्य उपादान हो भांति
भांति रस निवेदन करना है
जितनी चाबी भरी राम ने
खिलौना चलना है
उस रस में निज भाव न हो
बस समर्पण करना है
सूरज से दीपक में ज्योति
सूर्य रस वर्धन करना है
प्रेम उदय हो तो कोई
प्रयत्न न करना है
केवल रस लीला होगी
बस अभिनय करना है
प्रेम हुआ तो मैं गयी
प्रेमास्पद को अर्पण करना है
जो करना है वही करेंगे
उन्होंने निरूपण करना है
वे अब नित्य हुए हमारे
समर्पण करना है
रस अद्भुत बेखुदी में
केवल बेमन होना है
कोई छह चिंता प्रयास नही
पूर्ण अभय करना है
प्रेमी दृश्य में दो है
इससे रस वर्धन करना है
मिलन में विरह लगे
विरह में मिलन करना है
चित नही तो विरह विचारा
चित से मिलन लगना है
नित्य ही संग तेरा है
फिर क्यों सोचूँ मिलना है
चित प्रेमास्पद में हो तो
विरह ही असल मिलना है
दोनों भाव प्रेमी के होय
दोनों ने ही रस भरना है
विरह वेदना तीव्र हो तो
रस का पूर्ण बहना है
प्रेम न जाने भूत भविष्य
वर्तमान में करना है
प्रेमी को एकात्म और
भीतरी अनुराग से भरना है
श्रम से आरम्भ अहम होगा
कामना ही नही करना है
कामना पूर्ति प्रेम में नही
कामना निव्रती करना है
सर्वथा सभी अवस्थाओ में
प्रेमास्पद को रसमय करना है
जित देखूँ तित पाऊं होय
द्वेष न मन में धरना है
प्रेम में अगर रूखाई हो
उसमे भी रस भरना है
प्रेमी की अवस्था बदले
उसको बोध भी न होय
अपनी अवस्था का परिवर्तन
प्रेमास्पद से हटना है
प्रेमी केवल रजवत है
सब कुम्हार ने करना है
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