नित्य नवल रँग प्रीति

*नित्य नवल रँग प्रीति*

      श्रीयुगल का प्रेम नित्य वर्धित नित्य नित्य नवल रँगों से रँगा हुआ है।परस्पर सुख की लालसा ही प्रेम रूपी तृषा को क्षण क्षण वर्धित करती जाती है। यह लालसा क्षण प्रति क्षण बढ़ती ही जाती है जिससे अतृप्ति ही इस लालसा का मूल होकर प्रीति के सौंदर्य को नव नवायमान कर नवल रँगों से सुसज्जित करती है।श्रीप्रिया दासियों का हृदय अपने प्राण प्रियतम श्रीयुगल की इस नवल रँगीली प्रीति से रँग जाता है । मञ्जरी किंकरियों के हृदय की अभिलाषा भी कहाँ तृप्त होने वाली है। अपने प्राणों की संजीवनी श्रीस्वामिनी जु को नित्य नवल रँगों से सुसज्जित करती हैं । जब किंकरी मञ्जरी श्रीप्रियतमा को प्रियतम हृदय अनुराग रँग अर्थात लाल रंग के वस्त्र पहनाती हैं तो उनका सम्बोधन श्रीलाल जु सुन स्वामिनी जु के हृदय में प्रियतम आलिंगन की स्फुरणा होती है। किंकरी यदि पीत वस्त्र अपनी स्वामिनी जु के श्रृंगार हेतु लाई है तो महाभाविनी की श्रृंगार सज्जा  करते हुए आज पीताम्बर धारी प्रियतम की स्मृति दे रही है जिससे स्वामिनि जु अपने ही वस्त्र समझ प्रियतम को आलिंगित किये हो। नीलाम्बर धारण करवाती हुई किंकरी अपनी स्वामिनी जु को नीलमणि की स्मृति में भिगो देती है, अन्यथा श्रीप्रिया जु तो प्रियतम के अनुराग में ऐसी दशा में हो जाती है कि उनका श्रृंगार तो दूर उनको सम्भलना ही कठिन हो जाता है। मंजरियों किंकरियों की चतुराई ही उनकी प्राणेश्ववरी के प्राणों को उन्मादित किये रहती है।

  कृष्ण वर्ण की सज्जा करते हुए  प्रियतम श्रीकृष्ण के गुणों का बखान करना ही श्रीस्वामिनी जु के प्राणों की संजीवनी बन जाता है। नित्य यह दासियाँ अपनी स्वामिनी को प्रीति के नवल नवल रँगों से सजाय सजाय उनकी सेवा में ही आनन्दित होती रहती हैं। जिस प्रकार श्रीयुगल के हृदय का परस्पर प्रेम बढ़ता है उसी प्रकार इन दासियों के हृदय की सेवा लालसा भी बढ़ती जाती है। महाभाविनी के रँग में डूबे प्रियतम महाभाव की अवस्था मे ही डूब जावें तो प्रीति में रस जड़ता आ जाती है, जिझक निदान करती हैं श्रीनागरी जु की चतुर मंजरियाँ जिससे उनका हृदय नवल रँग प्रीति से नित्य नित्य उमगता रहे।इस प्रीति की भी तृप्ति नहीं है तथा दासियों के हृदय भी क्षण क्षण की सेवा लालसा से अतृप्त ही बने हुए हैं।इस नवल रँगीली प्रीति की जय हो! मनहर हरणी छैल छबीली की जय हो! अखिल गुनमणि प्रीति रसीली की जय हो!

जय जय श्रीगौर हरि!

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