कबहुँ स्वासा स्वासा

कबहुँ स्वासा स्वासा तोहे पुकारूँ।
कबहुँ नाम रटन होय जीवन बैठी तेरी बाट निहारूँ।
विरह ज्वाल कबहुँ देह जरै ये कबहुँ पाथर हिय अकुलावै।
कबहुँ नैनन निरखन सौं प्यासे ढुरक ढुरक अश्रुकण झरावै।
कबहुँ बनै न बाहर भीतर कछु कबहुँ गीली काठ सौं सुलगाऊँ।
जलत बनै न बुझत बनै न ऐसी दसा कौन विध पाऊँ।

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