इश्क़ का फलसफा

काश मुझे समझ आता तेरे इश्क़ का फलसफा
नाकाम ही हुए बस कोशिश की जितनी दफा

चलो खामोश करदो अपनी इस मोहबत को
मेरे दिल मे आशियाँ कर तूफान उठाती है क्यों

झूठी सी मोहबत मेरी दायरों की मोहताज रही
तेरी बेपनाह मोहबतों की कोई सरहदें कहाँ हैं

काश नाम कभी तेरा आता मेरी जुबान पर
कभी सच्चा मुझे इश्क़ होता रूह तक नीलम होती

काश वह सारे लफ्ज़ खामोश हो जाते
जो तेरी बेपनाह मोहबत को दायरे में बाँधते हैं

चलो आज सुलगता छोड़ो अपने इश्क़ की आग को
मुझको फनाह करदे कभी तेरे इश्क़ की आतिशबाजी

काश इस दिल से कोई ऐसे भी लफ्ज़ निकलते
जो मोहबत होती थोड़ी तो खुशबू बन बिखर जाती

जाने क्यों खामोश भी रहने न दिया
हाल अपने दिल का लफ़्ज़ों में भी कहने न दिया
काश तेरे नाम से निकलता कोई अश्क़ इन आंखों से
पत्थर से हो चुके हैं अश्क़ों भी बहने न दिया

सब लफ्ज़ भी खामोश हो चले
तेरी धड़कनें मुझमे ही सुनते सुनते

बेहद सा क्यों हो चुका है आज
बेवफा यह दिल मेरा और बेइन्तहा इश्क़ तेरा

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