इश्क़ का हुनर
इश्क़ का हुनर न आया बीत गई उम्र तमाम
होंठों पर न आया कभी सच्चा तेरा एक नाम
कभी डूब जाते हम तेरी आँखों के मयख़ाने में
कभी हमको भी मिलता इश्क़ वाला एक जाम
इश्क़ का हुनर.......
कभी तेरे दीदार से भीगी होती मेरी सुबह
कभी तेरी तड़प में प्यासी होती मेरी शाम
इश्क़ का हुनर......
दिल लुभाती रही हमारा दुनिया की वाहोवाही
भूल बैठे याद तेरी याद रहे झूठे काम
इश्क़ का हुनर.......
अश्क का एक कतरा कभी बहा न तेरे लिए
गुलामी जगत की सीखी जन्मों से हुए गुलाम
इश्क़ का हुनर.......
काश तेरी याद रहती भूल जाते खुद को हम
बेखुदी में जिंदा रहते हो जाते हम बेनाम
इश्क़ का हुनर......
गर मुझे इश्क़ होता खुद का न वजूद रहता
रूह तक हो जाती है आशिकों की नीलाम
इश्क़ का हुनर न आया बीत गई उम्र तमाम
होंठों पर न आया कभी सच्चा तेरा एक नाम
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