क्यों नहीं देते

मुझसे मेरा वजूद मिटा क्यों नहीं देते
मेरे दिल को घर अपना बना क्यों नहीं लेते

माना कि सच नहीं है अभी मेरी कोई पुकार
अपने दिल की बात मुझे सुना क्यों नहीं देते

कैसे कहूँ सजाई है महफ़िल ए दिल तेरे लिए
इक बार अपना आशियाँ बना क्यों नहीं लेते

खामोश ही रहने दो मेरे लफ्ज़ चुरा लो
अपनी दी कलम को वापिस बुला क्यों नहीं लेते

देखो बगावतों पर उतर आई है किस कद्र
है हक जब तुम्हारा सजा क्यों नहीं देते

मुद्दत से हैं किनारे इश्क़ के समंदर के
अब न बचाओ हमको डूबा क्यों नहीं देते

डूब यूँ जाएं कि कोई निशान न रहे बाकी
नाकाम सी मेरी हस्ती को मिटा क्यों नहीं देते

तुम ही बताओ जाएं कहाँ तेरे दर को छोड़कर
इक छोटे से कोने में जगह क्यों नहीं देते

माना गुनाह लाख मेरे तुमको तो इश्क़ है
निभता नहीं है मुझसे तुम निभा क्यों नहीं लेते

है मौत का इंतज़ार हमें पल पल रात दिन
तुम ही कहो जीने की कोई वजह क्यों नहीं देते

पत्थर सी यह जान निकलती न रूह जिस्म से
मुझको मर्ज़ ए इश्क़ की दवा क्यों नहीं देते

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