बिखरी सी
बिखरी सी
हाँ बिखरी सी ही
बिखर चुकी हूँ
टूट चुकी हूँ
तुमसे छिटक कर
अपने प्राणों के प्राण से बिछड़कर
परन्तु बिछड़कर
छूटकर तुमसे
धँसती ही गई
धँसती गई
इतना गहरा
गहरा गहरा
इतने आवरणों में दब
कुचली सी
भूल ही गई
भूल ही चुकी थी
अपने प्राणों के प्राण को
हाय !
इस दबी टूटी सी
कुचली सी चेतना पर
गिरा कोई एक छींटा
जो भेदन किया
भीतर के किसी आवरण का
जैसे किसी सुप्त बीज का अंकुरण
भीतर से फड़फड़ाता हुआ
आपने को अपना रूप
अंधेरे से रोशनी की ओर
अपने आकाश की ओर
दबी कुचली सी चेतना
बीज रूप फूटने से
कराहती हुई
निकल रही
पुकारती हुई
बढ़ रही
परन्तु
यह आवरण
यह बन्धन
यह घुटन
लंबे अंतराल से
जो जकड़े हुए
पुनः पुनः खींच लेते
भीतर का रोदन
हलचल प्रकट होती
जब आसपास की सुंगन्ध देखती
विलाप और विलाप
परन्तु यह जड़ता
यह भी कहाँ छोड़ती मुझे
पुनः पुनः भीतर बाहर की होड़
यह व्याकुलता
चलो मेरी एक बात सुनो
मेरे प्राणों के प्राण
मुझे जीवन मत दो
मुझे सुगन्ध मत दो
मुझे आकाश भी मत दो
बस खींच लो मेरी यह जड़ता
व्याकुलता ही बढ़ जावे
बढ़ते बढ़ते
पुकारते पुकारते
कराहते कराहते
निज प्राणों के प्राण की ही
भूमि को छू जावे
नहीं इच्छा की अंकुर से
कोई वृक्ष बनूँ
एक छोटी सी ही प्रेम बेली
जो उस भूमि पर ही रहे
उसी रज में लोट
रज ही होती रहे
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