प्रेम की उल्टी चाल
*प्रेम की उल्टी चाल*
अनन्त सौंदर्य, अनन्त माधुर्य , अनन्त प्रेमतृषातुर रसराज , नवल तरंगिणी , मन भाविनी , मृदुला , कोमलांगी , हृदेश्वरी, प्राणेश्वरी, प्राण रमणा श्री श्रीप्रिया जु के सौंदर्य सिन्धु, लावण्य सिन्धु, करुणासिन्धु की एक एक बूंद में भीग भीग नवल नवल किशोर होते जा रहे हैं। वहीं अखिल माधुर्य राषिणी , क्षण क्षण नव नवायमान सौन्दर्य, नव नवायमान माधुर्य से अपने प्राण प्रियतम के हृदय में क्षण क्षण में उठती अनन्त तृषाओं को परिपूर्ण भी कर रही हैं, परन्तु प्रियतम की यह रस तृषा तो अनन्त हो चुकी है , जितना ही वह इस रस समुद्र में डूबते जा रहे उतने ही तृषातुर हुए जा रहे हैं। यह प्रेम समुद्र ही ऐसा है जिसका कोई तल ही नहीं है , क्षण क्षण में और गहरा और गहरा हुआ जा रहा, क्योंकि तृषा अनन्त हो चुकी तो तृषा की परिपूर्णता ही तृषा का अनन्त होना है। यह प्रेम सदा उल्टी ही चाल चलता है। यदि प्राकृत धन की बात करें तो वह चाहे अनन्त भंडार ही न हो , परन्तु उसके व्यय की एक सीमा से बढ़ने पर उस कोष में रिक्तता आनी शुरू हो जाती है। परन्तु प्रेम रूपी यह धन जिस हृदय में अपना पहरा जमा देता है , वहां अपने लिए अनन्त स्थान बनाने को उस हृदय को भौतिक लालसा ,वासना से रिक्त बना देता है। ऐसे प्रेम के गुण का एक कण मात्र भी बखान नहीं किया जा सकता ।प्रेम जहां बाहरी रूप से मौन कर देता है , भीतर से उतना ही व्याकुल रखता है। जिस प्रकार सागर देखने मे बाहरी सतह से तो शांत दिखाई पड़ता है परन्तु भीतर उठ रही तरंगों का उछाल, उनका वेग, उनकी व्याकुलता इस सागर को तरंगायित रखती है।जिस प्रकार सागर में ज्वार आने पर वह अपनी तरंगों के आवेश को संभाल नहीं पाता तथा लहरें किनारों से दूर दूर तक बहने लगती हैं, पुनः पुनः उठकर पुनः पुनः लौटने लगती हैं , उसी प्रकार इस प्रेम का आवेश चित्त को अतिशय व्याकुल कर देता है तथा रस हृदय में समा नहीं पाता , तब अश्रु बिंदु होकर नेत्रों से प्रवाह फूट पड़ता है। ज्वार से उठी हलचल भरी जलराशि तो विनाश का कारण बनती है, परन्तु प्रेम रस समुद्र का ज्वार तो ऐसे तरंगायित होता है कि किसी और हृदय को इसकी एक लहर भी छू जावे तो उसे भी तरंगायित कर देती है। महाभाव रसराज का अनन्त प्रेमसिन्धु किसी चित्त में शांत हो समा भी कैसे सकता है। वह चित्त तो मिलन और विरह की असीम तरंगों से तरंगायित होता रहता है।
जा घट प्रेम उपजै लेवै उल्टी चाल ।
बाहर रह्वै मौन सम , भीतर लहर उछाल।।
ज्वार उठै समुद्र में तोड़ देवै सब बँद ।
प्रेमी चित्त के ज्वार को भरयौ असीम आनँद।।
प्रेम बेतल समुद्र गहरा जाकौ और न छोर।
छिन छिन बाढ़ै प्रेमरस अबहुँ और अबहुँ और।।
जय जय श्रीश्यामाश्याम
निताई गौर हरि हरि बोल
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