अपनो चित्त न दीन्हीं
हरिहौं अपनो चित्त न दीन्हीं
कबहुँ पकरै तू प्रेम पन्थ कौ रहै जगति मन कीन्हीं
जग वीथिन फिरै बाँवरी फिरै भोग रस भीनी
कारी कीन्हीं सगरी चुनरिया दिन दिन होवै झीनी
हा हा नाथा आपहुँ पकरौ निर्बल कोऊ बल न राखै
कस कस नाथा चपत लगावो विषय भोग न चाखै
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