बाँवरी दुई रूप
हरिहौं बाँवरी दुई रूप धरै
बाहर स्वांग भगत कौ गाढ़ै बाँवरी भीतर भोग भरै
क्षण क्षण बिरथा कीन्हीं बाँवरी न हरिनाम करै
बुद्धिहीन बिरथा जन्म रही खोय रहै भव सिन्धु परै
नाम भजन की रीति सौं दूरी कबहुँ न हिय भरै
खोटी कमाई कीन्हीं सगरी मूढ़े जोड़े न दाम खरै
Comments
Post a Comment