प्रियतम का श्रृंगार
*श्रीप्रियतम का श्रृंगार*
रसतृषित कौतुकी प्रियतम ने आज नया रस खेल किया है, लीला तो बाहर गिरिराज गोवर्धन उठाने की हो रही। प्रियतम तो रसलोभी ठहरे, या कहो रसपान , रसदान की ही लीला, नेत्रों से भर भर रूप माधुरी पीवन और पिलावन को।सभी ब्रजलनाओं के नेत्र एक ही रूप सुधा को पीवन हेत टिक गए, इस मुख मंडल पर, इस मुख मंडल की अद्भुत माधुरी, अद्भुत हास्य , अद्भुत रसभरे नेत्र .........आहा !! क्या क्या वर्णन हो सके री, रूप सिन्धु को शब्दों में समेटना भी तो कठिन, शब्दातीत अवस्था, जेई ब्रजलनाओं की कौन सी रस तृषा पूर्ण हुई कि निशि बासर अविरल नेत्रों से रूप माधुरी को भर भर पी रही।
उनकी श्वासों से बिखरती वह मधुर मधुर सुगन्ध जो पवन में घुल घुल हर तृषातुर को स्पर्श दे रही है, उनमें प्राण भर रही है, उन्मादित कर रही है। एक एक ब्रजवासी अपने प्रेमास्पद कृष्ण पर अपने अपने ढंग से प्रेम लुटा रहा है, प्रेम पा रहा है।यह गिरिराज गोवर्धन की लीला ही नाय , सच यह तो प्रेमी प्रेमास्पद की ही मिलन लीला है, तृषा की तृप्ति अतृप्ति का ही खेल बस.......
प्रियतम की मुख माधुरी ,आहा !! मुख मंडल पर अठखेलियाँ करती हुई अल्कावली , जाने कितने हृदयों सँग छेडछाड कर रही है। कभी गोप बालों सँग हास्य अठखेलियाँ उठ रही तो कभी ब्रज वनिताओं की मुख्य माधुरी अवलोकते उन्हें रससिक्त करते, रस तृषित करते यह रसिक प्रियतम। ऐसा अद्भुत *प्रियतम का श्रृंगार* न तो इससे पूर्व कभी हुआ । बाहर के शोरगुल ,तूफान, आपदा की भूल ही गए सब, इस गिरिराज गोवर्धन के तले, अपने प्रियतम की मुख माधुरी के अवलोकन में, उस मधुर श्रृंगार में, उस नवल रस भींजन में, नवल अरुणिमा में, नवल हास्य में ........
कुछ दृष्टिगोचर है तो बस, प्रेम ही प्रेम, रस ही रस , रसराज का रससिंधु ......
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