रुदन
*रुदन*
रुदन एक ऐसी भाव अवस्था है जिसमें विरह भी है परंतु यह रुदन भी भीतर शीतलता ही भरता है। विरह ताप से ही रुदन फूट पड़ता है। रुदन में बाहर से विरह व्याप्त है परंतु भीतर एक शीतलता है। भीतर एक खींच है, एक जुड़त्व है, एक खिंचाव है। जैसे रस्सी एक छोर से बन्धी हो , बस उसे खींचा जा रहा हो , वह सीधी होती जा रही है।
रुदन एक सामर्थ्यहीन अवस्था भी प्रकट करता है। ऐसी अवस्था जहाँ खो गया स्वयं का सब बल, बन्द हो गई अपनी बुद्धि लगनी। जितना भीतर समर्पण प्रकट हो रहा , उतना ही रुदन फूट रहा। यह बुद्धि से परे एक भाव की अवस्था है, ऐसी अवस्था जहाँ स्वयम की स्वयम से रति मति खो चुकी है, स्वयम का स्वयम से बन्धन ढीला हो चुका है, भीतर रिकक्ता भरती जा रही है, जहाँ स्वयम का अहंकार स्वाहा हो रहा, उस शून्यता में केवल प्रेमास्पद भर रहे। जितना प्रगाढ़ भीतर प्रियतम का सानिध्य है उतना ही प्रगाढ़ प्रेमी हृदय से रुदन फूट रहा है।
रुदन की यह अवस्था भीतर की गलित अवस्था को प्रकट करती है। जहाँ स्वयम का बोध गलित हो चुका है, एक ऐसी अतृप्ति भर रही भीतर जो ताप न देकर शीतलता ही दे रही, यह रुदन भी जीवन प्रदायन हो चुका हो जैसे। एक ऐसी अवस्था जिसमें एक शिशु किसी पीड़ा से दुखी हो अपनी माता की दृष्टि पड़ते ही रुदन आरम्भ करता है, जैसे ही माता ने उसे गोद मे भर लिया, स्नेह वात्सल्य से रुदन और भी प्रगाढ़ हो उठा। प्रेमी के रुदन की भी यही अवस्था है, बाहर विरह ताप से दग्ध होते हुए भी यह विरहाश्रु प्रेमास्पद के स्पर्श से ही फूट रहे हैं, क्योंकि इस गलित अवस्था मे उसका स्वयं का बोध छूट चुका है। इस रुदन का आस्वादन जहाँ प्रेमी करता है वहीं उसका प्रेमास्पद इस रुदन पर भी बलिहारी हुआ जाता है। प्रेमी के विरहाश्रु में भी सुख है , जिसका आस्वादन वह एक एक श्वास में करना चाहता है।
श्रीकृष्ण प्रेम के आस्वादन की यही लालसा उन्हें गौर बना देती है , जहाँ अनन्त कोटि महाभाव धारण कर वह रुदन का ही आस्वादन कर रहे। सम्पूर्ण गम्भीरा लीला इसी आस्वादन की तृप्ति हेतु है, परन्तु यहां रस ऐसा है जो पुनः पुनः अतृप्त करता है, इसी का आस्वादन श्रीगौरांग सुंदर अपनी नित्य लीला में करने को पुनः पुनः तृषातुर रहते हैं। उनकी लीला में तो रुदन से आरम्भ हो सभी प्रेम भाव दशाओं का आस्वादन भरा हुआ है।
श्रीगुरु गौरांगो जयते !!
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