हरिहौं अपनी ओर देखत

हरिहौं अपनी ओर देखत लजात
कबहुँ पिघले हिय पाथर बाँवरी बिरथा जन्म गमात
बिरथा जन्म रहे गमात बाँवरी कबहुँ हरिनाम न भावै
विषयन कूकरी स्वाद जगति को जग वीथिन लौटत जावै
कबहुँ तेरौ भव निद्रा छूटे कबहुँ हरिनाम सुधि आवै
बाँवरी मूढ़ा भवनिद्रा गाढ़ी तेरौ किस विध छुटकारा पावै

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