हरिहौं हम तो कुटिल

हरिहौं हम तौ कुटिल घनेरे
छांड भजन की बात निशिबासर लौटत चार चुफेरे
भजनहीन मानुस हम पसु सम परत चौरासी फेरे
कौन विध प्रेम बाताँ हिय आवै बनै कौन विध चरणन चेरे
बाँवरी तोहे जगति रस भावै करत रही मेरे मेरे
अबहुँ मूढा हरिचरण लाग री नाम भज साँझ सवेरे

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